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________________ भगवान कभी नहीं कह सकते हैं। भगवान वीतरागता एवं सर्वज्ञता रहित नहीं हो सकते हैं। भगवान बनने के लिये ये गुण आवश्यक होते हैं । परन्तु इन गुणों को प्राप्त किये बिना या इस अवस्था पर पहुँचे बिना ही यदि कोई रागी-द्वेषी, अल्पज्ञ, विपरीतज्ञ ही अपने आपको भगवान कहने लगे या राग-द्वेष, भोग-विलास करने वाले भी भगवान बन जावे अथवा उन्हें भगवान मानकर उनके अनुयायी बनकर यदि कोई उनके पीछे पागल होता है, तो समझिये कि-"स्वयं नष्टा परान्नाशयति" वे खुद भी नष्ट हो चुके हैं और अन्यों को भी नाश करेगे। "विनाश काले विपरीत बुद्धि" की तरह नाश-विनाश काल में उनकी मति विपरीत हुई कि उन्होंने रागीद्वेषी-भोग विलास वाले अल्पज्ञ को भगवान माना । वे स्वयं तो असत्य मिथ्यात्व एवं अज्ञान के खड्ड में गिरे ही लेकिन अपने कदाग्रह-दुराग्रह के खड्डे में दूसरों को भी गिराया, फंसाया। इस तरह "स्वयं नष्टा परान्नासयति" जैसी परिस्थिति निर्माण कर दी। असः सम्यक्त्व का मुख्य आधार जो भगवान पर है उन्हें सर्वप्रथम सर्वन, बीतरागी अवस्था वाले को ही भगवान मानना अनिवार्य है और ऐसे सर्वज्ञ वीतरागी को ही भगवान मानना ही शुद्ध सच्चा सम्यक्त्व कहलावेगा। ___ “आप्तस्तु यथार्थवक्ता" इस सत्र से पूज्य तार्किक शिरोमणि वादिदेवसूरी महाराज ने "प्रमाणनय तत्वालोक" ग्रन्थ में यथार्थ वक्ता को ही आप्त महापुरुष कहा है । लौकिक आप्त पुरुष जो संसार के व्यवहार में जबकि इनसे श्रेष्ठ सर्वोच्च कक्षा के लोकोत्तर आप्त महापुरुष जो वीतरागी सर्वज्ञ हैं, उनके वचन में सर्वोच्च रखना ही सम्यक् श्रद्धा है। इस तरह स्पष्ट सत्य स्वरूप ऐसा है कि जो जो वीतरागी होते हैं वे ही भगवान होते हैं, परन्तु अल्पज्ञ रागी-द्वेषी, भोग-लीला वाले भगवान नहीं कहलाते हैं । इसलिये वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा (भगवान) ने जो-जो कहा है वही सत्य है और वास्तव में जो सत्य है उसे परमात्मा ने ही कहा है, क्योंकि वीतरागता के गुण के कारण, राग-द्वेष, काम क्रोधादि कारणों का परिहार हो जाने के कारण अब असत्य बोलने या कहने का उनके पास कोई कारण ही शेष नहीं बचा है। क्रोध-लोभ-भय, हास्यादि ये ही असत्य बोलने के प्रमुख कारण हैं जबकि सर्वज्ञ वीतरागी भगवान जो-"अष्टादश दोष वजितो जिनः" अठारह दोष या सर्व दोष रहित जिन भगवान कर्म की गति न्यारी
SR No.002481
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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