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में ठीक इससे विपरीत असत्य का आग्रह होता है । साथ ही अज्ञानतावश कदाग्रह. दुराग्रह की वृत्ति होती है।
अब प्रश्न यह उठता है कि ज्ञान का चरम सत्य स्वरूप कहां से प्राप्त किया जाय ? प्रत्येक व्यक्ति अपनी बात को सच्ची ही कहता है, अतः किसकी बात सच्छी मानें ?
_ "मण्डे मुण्डे मतिभिन्नाः" इस कथन के अनुसार-"जितने व्यक्ति उतनी मति" या "जितने मुंह उतनी बात" वाला ऐसा संसार का स्वरूप है । कोई भी व्यक्ति, मत, पंथ, गच्छ, समुदाय या धर्म अपनी बात को असत्य कहने को तैयार नहीं है । अत: किसे सत्य मानें ? और किसका मत सत्य मानें ? यह हमारे सामने एक विकट प्रश्न है।
एक ओर शास्त्र-सिद्धान्त यह कहता है कि चरम सत्य का स्वरूप एक ही होता है। सत्य कभी भी दो रूपों में नहीं होता है । सत्य कभी भी अस्थिर या विनाशी, नाशवंत एवं क्षणिक नहीं होता है । सत्य तो सदा ही स्थिर, नित्य, ध्रुव, अविनाशी व शाश्वत होता है । ऐसे सत्य को कहां से प्राप्त करें ? हमें सत्य के सच्चे स्वरूप के दर्शन कहां से होंगे ? किसकी बात पर हम आंख मूंदकर पूर्ण विश्वास रखें ? किन की बात को पूर्ण सत्य मानें और यह समझें कि इसमें अंशभर भी असत्य की संभावना ही नहीं है । जिसमें रंचमात्र भी शंका न हो, ऐसी बात किसकी हो सकती है।
इसके उत्तर में कहते हैं कि -"सच्चं खु भयवं" अर्थात् सत्य ही भगवान है । भगवान ही पूर्ण सत्य स्वरूप है और भगवान का कहा हुआ ही चरम सत्य है । इस सत्य और भगवान में अविनाभाव (एकात्म) सम्बन्ध है । तर्क बुद्धि से सोचने पर तर्क का आकार इस प्रकार का हो सकता है कि-जो-जो सत्य हैं वह भगवान ने कहा है ? या जो-जो भगवान ने कहा वह सत्य है ? या जितना सत्य है, उतना भगवान ने कहा है ? सत्य बड़ा है या भगवान ? भगवान से सत्य की उत्पत्ति हई है या सत्य से भगवान की उत्पत्ति हुई है ? ऐसे कई प्रश्नों का सारांश यह है कि सत्य सर्वज कथित एवं सर्वज्ञोपदिष्ट है ।
सर्व प्रथम भगवान के विषय में ही सही (सत्य) निर्णय करलें ताकि सत्य का मूल आधार स्पष्ट हो जावे । इसे भी तर्क की कसौटी पर कस कर देखें
कर्म की गति न्यारी