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अनादिकालीन कर्म क्षयार्थ प्रवर्तमान आत्मा के अध्यवसाय, परिणाम विशेष को पहला यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं, जिसमें कर्म बंध की उत्कृष्ट स्थितियों का घात करते, अतः कोड़ाकोड़ी सागरोपम की करके आत्मा को ग्रन्थि प्रदेश के समीप लाने का काम होता है। इसके बाद कभी भी जिस शक्ति का प्रयोग नहीं किया हो ऐसी अपूर्वअभूतपूर्व आत्मिक शक्ति का प्रयोग करके स्थिति घात, रसघात आदि करने के अध्यवसायपरिणाम विशेष को अपूर्वकरण कहते है । सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होने तक परिणाम पुनः न गिर जावे अर्थात् निवृत्ति न हो जावे, ऐसे आत्मा के अध्यवसाय विशेष को अनिवृत्तिकरण कहते हैं।
उपरोक्त तीनों ही आत्मिक अध्यवसाय (परिणाम) रूप करण क्रमश: अधिकअधिक विशुद्ध-विशुद्धतर होते हैं । इन तीन करों में से अभव्य जीव को मात्र पहला करण ही होता है । वह कदापि उससे आगे नहीं बढ़ पाता है, जबकि भव्य जीवों के लिए तीनों करण आगे बढ़ने में अनिवार्य होते हैं। तीनों करण कब और कहाँ किये जाते हैं, इस विषय में लिखते हैं कि
जा गंठी ता पढमं गठि समइच्छाओ अपुव्वं तु ।
अनियट्टीकरणं पुण सम्मत्तपुरक्खडे जोवे ।। १. ग्रन्थि स्थान पर्यन्त आगमन पूर्व पहला यथाप्रवृतिकरण किया जाता है । २. ग्रन्थि भेद करते समय अपूर्वकरण नाम का दूसरा करण होता है। .
इसमें ग्रन्थि भेद करके अर्थात् राग-द्वेष की गांठ का छेदन करके जीव सम्यक्त्वाभिमुख होता है ।
३. इसके आगे अत्यन्त विशुद्ध अध्यवसायरूप तीसरा अनिवृत्तिकरण, करके जीव तुरन्त सम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है ।
२. अपूर्वकरणअपूर्व “न पूर्वमित्यपूर्वम्” पूर्व अर्थात् पहले कभी भी नहीं किया है, ऐसा आत्मिक अध्यवसाय रूप शक्ति का प्रयोग करना, इसे अपूर्वकरण कहते हैं अर्थात् अनादिकाल के अनन्त पुद्गल परावर्तकाल तक के संसार परिभ्रमण में जिसका प्रयोग जीव ने पूर्व में कभी भी नहीं किया था, ऐसे शुभ प्रशस्त आत्मिक अवसाय रूप
कर्म की गति न्यारी