________________
मित्र कायरता से चोरों की शरण स्वीकार कर, वहीं बैठ गया । तीसरा मित्र जो साहसी था, उसने चोरों से संघर्ष किया। उसने लड़कर चोरों पर विजय प्राप्त करके, आगे प्रयाण किया और इच्छित स्थान पर पहुँच गया ।
इस दृष्टान्त के उपनय में कहते हैं कि घने जंगल के समान यह संसार है । दो चोर राग और द्वेप हैं । चोरों का घने जंगलों में छिपने जैसा ग्रन्थि (गाँठ ) प्रदेश है तथा मित्रों की तरह तीन प्रकार के जीव होते हैं- पहले मित्र की तरह कुछ जीव ऐसे होते हैं जो राग-द्वेष की ग्रन्थि की दुर्भेद्य स्थिति को देखकर वापिस लौट आते हैं । दूसरे प्रकार के मित्र के समान कई जीव ऐसे होते हैं जो घबराकर रागद्वेष की गांठ के शरण होकर, हिम्मत हारकर ग्रन्थि प्रदेश के समीप बैठे रहते हैं । जबकि कुछ भव्य जीव शक्तिशाली, साहसिक, तीसरे मित्र जैसे होते हैं, जो दुभद्य राग-द्वेष की गाँठ को अपूर्वकरण बल से भेद कर, पार उतरते हुए सम्यकत्व को प्राप्त करते हैं । लेकिन ऐसे जीव विरले ही होते हैं ।
तीन मित्रों के स्वाभाविक गमन के जैसा, ग्रन्थि प्रदेश के समीप लाने वाला यथाप्रवृत्तिकरण, हिम्मत से संघर्ष करके चोरों को परास्त करने जैसा अपूर्वकरण है, तथा इच्छित स्थान तक पहुँचाने वाला अर्थात् सम्यक्त्व प्राप्त कराने जैसा अनिवृत्तिकरण है ।
तीन करणों की प्रावश्यकता
करणं अहापवत्तं अपुत्रमनिय ट्टिमेव भव्त्राणं ।
इयरेसि पढमं चिथ भन्नड़ करणंति परिणामो ||
मोक्ष प्राप्ति चरम फल है, जबकि तीन प्रकार के करण करना, मोक्ष प्राप्ति हेतु सर्व प्रथम कर्तव्य है । अनादिकालीन गाढ़ मिथ्यात्व में से, मिथ्यात्व की मात्रा कम करती हुई आत्मा मंद, मंदतर मिथ्यात्व में आकर तथाभव्यत्वपरिपक्व से मोक्ष प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होती हुई, प्रथमावस्था में १ यथाप्रवृत्तिकरण, २. अपूर्वकरण, ३. अनिवृत्तिकरण करती है । यहां पर "करणमिति परिणामो" करण अर्थात् आत्मा का परिणाम विशेष । परिणाम = आत्मा के अध्यवसाय, भाव या विचार आदि ।
कर्म की गति न्यारी
७५