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________________ थाणु व्व गंठिदेसे गठियसत्तस्स तत्थवत्थाणं । ओयरणं पिव तसो पुणोऽवि कम्मट्ठइविवुइढी ॥ स्वाभाविक गति से चींटियाँ पृथ्वी तल पर इधर-उधर चलती रहती हैं । ते इन्द्रिय कक्षा का यह जीव आँख, कान रहित सिर्फ तीन इन्द्रियों वाला ही है । दिखाई न देते हुए भी चींटी इधर-उधर आती जाती रहती हैं । कई चींटियाँ वृक्ष के तने (स्तम्भ) पर चढ़ती हैं । कई दीवार के सहारे किले पर चढ़कर उड़ भी जाती हैं । कई किले पर न चढ़ कर वहीं आस-पास घूमती रहती हैं, और किले पर चढउतर करती रहती है । चोटियों की स्वाभाविक गति की तरह, जीव का सहज स्वभाव यथा प्रवृत्तिकरण रूप होता है, किले पर चढ़ने के जैसा अपूर्वकरण होता है, किले पर से उड़ जाने की तरह अनिवृत्तिकरण होता है । इस तरह कई जीब सहज स्वाभाविक यथाप्रवृत्तिकरण करते हुए किले के समीप आते हैं, दूसरे कई जीव किले पर चढ़ी हुई चींटियों की तरह अपूर्वकरण से ग्रन्थि भेद करते हुए आगे बढ़ते हैं । तथा किले पर न चढ़कर वहीं घूमती हुई चींटी की तरह कई जीव ग्रन्थि देश में पड़े रहते हैं । इसी बात को तीन प्रकार के पुरुषों के दृष्टांत से विशेष स्पष्ट समझा जाता है । ७४ तीन मित्रों को चोर मिलेजह वा तिन्नि मणूस जनड विपहं सहावगमणेण । वेलाइक्कमभीया तुरंत पता यदो चोरा ॥ ब मग्गतडन्थे ते एगो मग्गओ पडिनियत्तो । बितियो गहिओ तइओ समक्कंतो पुरं पत्तो ॥ अडवी भवो मणूसा जीवो कम्मट्ठई पहो दोहो । गंठी य भयत्थाणं राग-दोसा य दो चोरा ॥ भग्गो oिsपरिवड्ढी गहिओ पुण गंठिओ गओ तइओ । सम्मत्तपुरं एवं जोएज्जा तिष्णि करणाइ ॥ - तीन मित्र व्यापार करने के लिए विदेश जा रहे थे । चलते-चलते वे एक घने जंगल में पहुँचे । क्रमशः आगे बढ़ते हुए, एक, एक मित्र को मार्ग में दो-दो चोर मिले । पहला मित्र दोनों चोरों को देखकर, वहां से नो-दो ग्यारह हो गया । दूसरा कर्म की गति न्यारी
SR No.002481
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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