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है । वैसे यह ग्रन्थि और कुछ नहीं लेकिन अनन्तानुबन्धी कषायों की चौकड़ी है। यह दीर्घकाल से आत्मा में पड़ी हुई है।
____ जैसे वस्त्र पर बैलगाड़ी के पहिये का कीट रूप मल (काला दाग) लग जावे और बह भी इतना अधिक गहरा कि वस्त्र फट जावे ती भी न छूटे (इस पर वह काला दाग यदि धूल आदि से दबा हुआ रहे तो पता भी न चले) ठीक इसी तरह आत्मा-प्रदेश रूपी वस्त्र पर तीव्र गाढ़ राग-द्वेष की अत्यन्त मलिन कर्म परिणति रूप कीट के दाग की तरह गांठ बांधकर, आत्मा के साथ चिपक रहा है; और ऊपर से उस पर कर्म बंध की उत्कृष्ट स्थिति रूपी धूल जम जाने से अनादि काल तक जीव को पता ही नहीं चलता, और वह जीव अनन्तानुबन्धी कषायादि राग-द्वेष की वृत्ति एवं प्रवृत्ति में काल निर्गमन करता रहता है। ,
यथा प्रवृतिकरण करने का यह लाभ है कि जीव आयुष्य कर्म को छोड़, शेष सातों कर्मों की उत्कृष्ट के बंध स्थितियों का ह्रास करके, इस ग्रन्थि प्रदेश के समीप में आता है । ठीक ही कहा है कि
अन्तिमकोडाकोडीए सव्वकम्माण पाउवज्जाणं । पलियासंखिज्जइमे, भागे खीणे हवइ गंठी ॥
आयुष्य कर्म के सिवाय अन्य सातों कर्मों की अन्तिम कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति में से पल्योपम के असख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति का क्षय होने पर जीव ग्रन्थि वेश को प्राप्त करता है। ऐसे भयंकर राग-द्वेष की निबिड़ गाढ़ गाँठ को भेदने के लिए जीव को अभूतपूर्व शक्ति का प्रयोग करना पड़ता है । जो जीव शक्ति का प्रयोग करके, विजय पाकर, आगे बढ़ जाय, वह सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है। लेकिन सभी जीव समान शक्ति वाले नहीं होते हैं। कई जीव हार मानकर ग्रन्थि भेद का दुर्भेद्य कार्य छोड़कर पुनः लौट भी जाते हैं। इस बात को विशेषावश्यक भाष्य में चोंटी एवं पुरुषों के दृष्टान्त से समझाई हैं।
खितिसाभावियग मणं थाणूसरणं तओ समृप्पयणं । थाणं थाणुसिरे वा ओरहणं वा मुइंगाणं । खिइगमणं पिव पडमं थाणूसरणं व करणमपुव्वं । उप्पयणं पिर्व तत्तो जीवाणं करणमनियट्टि ॥
कर्म की गति न्यारी
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