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शक्ति का अभूतपूर्व प्रयोग करके राग-द्वेष की निबिड़ ग्रन्थि का छेदन-भेदन करना यह अपूर्वकरण कहलाता है। यह अपूर्वकरण पहले यथा प्रवृत्तिकरण की अपेक्षा ज्यादा शुद्धत्तर-विशुद्ध कक्षा का है।
पूर्व प्रवृत्ति विशिष्ट यथाप्रवृत्तिकरण करने वाला भव्य जीव ही इस अपूर्वकरण को कर सकता है। यह अपूर्वकरण यथा प्रवृत्तिकरण का कार्य हुआ, जबकि यह आगे के तीसरे अनिवृत्तिकरण का कारण होता है। एकेद्रिय से च उरेन्द्रिय तक के चींटी, मकोड़े, मक्खी, मच्छर आदि विकलेन्द्रिय जीवों तक के लधु जीव इसके अधिकारी ही नहीं है। पंचेन्द्रिय जीव उसमें भी पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव, ही इसे करने वाले अधिकारी बनते हैं। उसमें भी सभी पंचेन्द्रिय नहीं. लेकिन मात्र वे ही, जिसका मोक्ष प्राप्ति का समय अर्द्ध पुद्गल परावर्तकाल ही शेष रहा हो, ऐमा तथाभव्यत्व जिसका परिपक्व हुआ है, ऐसा भव्य जीव ही अपूर्वकरण करने का सच्चा अधिकारी होता है।
राग-द्वेष को निबिड़ ग्रन्थि का भेदन करने में ऐसा भव्य जीव. इस अपूर्वकरण का उपयोग शस्त्र के रूप में करता हैं। अत: ग्रन्थिभेद यह अपूर्वकरण की क्रिया का फल है । अनादिकालीन अनन्त पुद्गल परावर्तकाल में वीते अनन्त भवों में, जीव ने ऐसा जो कभी नहीं किया था, वह ग्रन्थि भेद का कार्य "अपूर्वकरण क्रिया से आज प्रथम बार ही किया है ।
इस अपूर्वकरण में पाँच वस्तुएँ अपूर्व प्रकार की होती है --- (१) अपूर्व स्थिति धात। . (२) अपूर्व रस घात । (३) अपूर्व गुण श्रेणी। (४) अपूर्व गुण संक्रमण । (५) अपूर्व स्थिति बंध ।
(१) जैसा कि जीव ने पूर्व में कभी भी नहीं किया है, ऐसा कर्म बन्ध की स्थितियों का घात इसमें करता है । यथा प्रवृत्तिकरण करके जीव कर्म बंध की उत्कृष्ट स्थितियों का घात करके उनकी अंततः कोड़ाकोड़ी स'गरोपम की स्थिति
कर्म की गति न्यारी
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