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चित्र की विशेष समझ
(१) जीव का अनादि मिथ्यात्व दशा का काल “मिथ्यात्व' गुणस्थानक कहलाता हैं। इस प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थानक पर जीव “नदीगोलपाषाणन्याय" की तरह यथाप्रवृत्तिकरण की प्रवृत्ति करके कर्मों की उत्कृष्ट स्थितियों को घटाकर अन्ततः कोडाकोडी सागरोपम में भी पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून जितनी स्थिति घटाने का काम यहां करता है।
(२) राग-द्वेष के तीव्र उदयरूप ग्रन्थि प्रदेश के समीप जीव अनेक बार आता है, परन्तु ग्रन्थि (गांठ) से डरकर वापिस चला जाता है या वहीं रुक जाता है।
(३) ग्रन्थी (गांठ) अथवा मित्यात्व के उदयवाला तीव्र राग-द्वेष का काल ।
(४) एक ही अन्तमहूर्त काल में कोई जीव अपूर्वकरण" रूप आत्मा के निर्मल विशुद्ध अध्यवसाय से राग-द्वेष के आधीन न होते हुए ग्रन्थि (गांठ) का छेदन- . भेदन करता है वह "अपूर्वकरण" काल कहलाता है। .
(५-६) अभिवृत्तिकरण के अन्तर्महूर्त का पूर्व अन्तमहूर्त काल । (क्रियाकाल) इस काल को पसार करता हुआ भविष्य के अन्तर्महूर्तकाल में उदय में आने वाले मिथ्यात्व के दलिकों में से कुछ वर्तमान कालीन अन्तर्महूर्त में खींच लाता है और कुछ भविष्यद् अन्तमहूर्त में डाल देता है । इस प्रकार बीच का अंतर्मुहूर्त मिथ्यात्व दलिकों से रहित बना देता है । यहां पर मिथ्यात्व की सतत लम्बी स्थिति के २ भाग करने से बीच में जो अन्तर पड़ता है उसे “अन्तकरण" कहते हैं। अनिवृत्तिकरण काल के क्रियाकाल के अन्तर्महूर्त को अनिवृत्तिकरण तथा निष्ठाकाल के अंतमहूर्त को अन्तरकरण मानते हैं। दोनों का संयुक्तकाल भी अंतमहूर्त ही होता हैं उसे सम्पूर्ण अनिवृत्तिकरण कहते हैं ।
(७) अंतरकरण -अनिवृत्तिकरण के ही इस अन्तरकरण रूप निष्ठाकाल में मिथ्यात्व दलिक नहीं रहने से यहां पर प्रथम समय में ही उपशम समकित प्राप्त करता है। इसे चतुर्थ गुणस्थान कहते हैं। कोई-कोई जीव चौथे से भी ज्यादा गुणस्थान भी अन्तरकरण में ही प्राप्त कर लेता है ।
___ (८) अंतरकरण के अंतर्मुहूर्त की अन्तिम ६ आवलिकारूप सास्वादन का काल । कोई मन्द परिणामी जीव उपशम-समकित में ही यहां पर अनन्तानुबन्धी का
कर्म की गति न्यारी