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केशर आदि पदार्थ के सहयोगीकरण से उस दूध में विशिष्टता आती है, वैसे ही सर्व जीवों में भव्यत्व समानरूप होते हुए भी काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृतकर्म और पुरुषार्थ आदि समवायी निमित्तों का किसी विशेष भव्य जीव को सहयोग मिलने पर उस जीव का तथाभव्यत्व परिपक्व होता है। ऐसा तथग्भव्यत्व परिपक्व भव्यजीव का भव्यत्व सामान्य भव्य के भव्यत्व से (केशरी दूध की तरह) भिन्न कक्षा का होता है । ऐसा तथाभव्यत्व वाला भव्य जीव ही संसार क्षय एवं मोक्ष प्राप्ति के लक्ष्य की तरफ आगे बढ़ने की योग्यता वाला होता है।
धर्मसन्मुखीकरणकालऐसा तथाभब्यत्व परिपक्ववाला जीव चरमावर्त में प्रवेश करके शुद्ध अध्य वसायों की तरफ अग्रसर होता है। यहां पर जीव अपनी अनादि काल की “ओद्य' दृष्टि को छोड़कर “योग" दृष्टि में प्रवेश करता है। मित्र एवं तारा दृष्टि में जीट स्वल्प मात्र बोध प्राप्त करता है । धर्म श्रवण करने की उसकी जिज्ञासा जागृत होत है। मन में उद्भूत धर्म श्रवण एवं दुःख निवृत्तिरूप शुभ भाव रूप धर्म श्रबण करने की जिज्ञासारूप अभिलाषा के काल को "श्रवण-सन्मुखीकाल" कहा है धर्मसन्मुखीकरणकाल का यह प्रथम सोपान है । प्रथम श्रवणसन्मुख होने के बाद ही धीरे-धीरे जीव धर्मसन्मुख होता है । इस तरह अनादि अनन्त संसार में परिभ्रमण करते हुए जीव को मुक्ति के लिए या आत्मा की सर्वोत्कृष्ट शक्ति के आविर्भाव के लिए पहले की अपेक्षा परिणामों की विशुद्धि निर्माण होत है, और वह चरमावर्तकाल में ही "मार्गानुसारी” बनकर कुछ गुणों को लाने की कोशिश करता है । यह इच्छा जीव को मार्गसन्मुखी बनाती है। यहां "मार्ग" शब्द से धर्म अर्थ लिया है। वास्तव में यह जीव पूर्ण धर्मी नहीं बनता है, परन्तु धर्मी बनने की पात्रतारूप एवं “धर्ममार्ग" को अनुसरने की योग्यता प्राप्त करता है। यह धर्मसन्मुखीकरण का योग्य काल है। इन कालों को भिन्न-भिन्न नामकरण द्वारा कह गया।
अचरमो परिअट्ट सु कालो भवबालकालमो भणिओ। चरमो अधम्मजुब्वण, कालो तह चित्तभेओत्ति ॥ ता बीअपुष्वकालो, ओ भवबालकाल एवेह । इयरो उधम्मजुव्वण-कालो विहिलिंगगम्मुत्ति ॥
कर्म की गति न्यारी