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________________ जातियों में एवं ८४ लक्ष जीवयोनियों में परिभ्रमण करते हुए जोव ने अनन्त भव एवं अनन्त पुद्गलपरावर्तकाल बिताया है । यह सारा काल मिथ्यात्व की अज्ञान दशा में बीता है । अतः ऐसे मिथ्यात्व को अनादि मिथ्यात्व भी कह सकते हैं । जन्म जरा मरण रूप जल तरंगों से व्याप्त भीषण भयंकर भवरूप ससार समुद्र में मिथ्या मोहनीय आदि प्रबल गाढ़ कर्मप्रकृतियों के कारण जीव अनन्त पुद्गलपरावर्तकाल तक परिभ्रमण करता रहा । सूक्ष्म अव्यवहार राशि निगोद में जीव ने अनन्त जन्म बिताए । अकामनिर्जरा आदि उपयोगी एवं सहयोगी कारणों से तथा भव्यत्व परिपक्व होने पर वह किसी आत्मा के संसार से मुक्त होने पर अव्यवहार राशि निगोद का जीव सूक्ष्म निगोद में से बाहर निकलकर वादर पर्याय में आया, और क्रमशः भव परम्परा में आगे बढ़ता हुआ ८४ लक्ष जीवयोनियों में भटकता हुआ सुख, दुःख की थपेड़े खाता हुआ अनन्त भव एवं अनन्तपुद्गलपरावर्तकाल बिताता हुआ आगे बढ़ता है । चरमावत में प्रवेश इस तरह महाभयंकर दुःखदायी संसार समुद्र में अनन्तपुद्गलपरावर्तकाल में अनन्त दुःखों को सहन करता हुआ जीव चरमावर्त में प्रवेश करता है । चरम = अन्तिम, आवर्त = कालचक्र के गोलाकार वलय । चरमावर्त अर्थात् कालचक्र के अन्तिम वलय - आकार अवस्था में जीव का प्रवेश करना । जैसे मानो कि तेली का बैल दिन-रात घूमता- घूमना अन्तिम बार के चक्कर में आकर खड़ा रहता है, ठीक वैसे ही भव्यजीव अपना " तथा भव्यत्व" परिपक्व होने के कारण अन्तिम बार के पुद्गलपरावर्तकालचक्र के गोले में अर्थात् चरमावर्त में आकर प्रवेश करता है । जैसे जैसे अग्नि के तीव्र तापादि कारण मे चूल्हे पर चावल, दाल या खिचड़ी पक जाने पर "परिपक्व " होने पर अब उसे अन्तिमबार देखकर पुनः रखकर फिर उतारने की तैयारी की जाती है, वैसे ही अनन्त संसार के अनन्त दुःखों में दुःखी होता हुआ. एवं = लक्ष जीवयोनियों में अनन्त पुद्गलपरावर्तकाल तथा अनन्तकाल बिताता हुआ जीव तथा भव्यत्व परिपक्व होने पर भवभ्रमण के अन्तिम पुद्गलपरावर्तचक्र के चरम काल में पहुँचता । जैसे प्रकाश, पानी, हवा आदि सहयोगी कारण मिलने से, एक बीज मे अंकुरोत्पत्ति होती है और बीज जैसे वृक्ष बनने की दिशा में आगे बढ़ता है, ठीक वैसे ही काल, स्वभाव, नियति पूर्वकृतकर्म, पुरुषार्थ आदि पांच समवायी कारणों के योग को प्राप्त करके, तीव्र अकामनिर्जरा के बल पर अपना तथा भव्यत्व परिपक्व करता है । सभी जीवों में भव्यत्व समान होते हुए भी तथाभव्यत्व उस अवस्था में एक विशेष प्रकार का होता है । उदाहरणार्थ जैसे एक ही प्रकार का दूध, जो भिन्न-भिन्न पात्रों में पड़ा है उसमें से किसी एक पात्र के दूध में बादाम, पिस्ता, शक्कर, इलायची, कर्म की गति न्यारी ६५
SR No.002481
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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