SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अचरम पुद्गलपरावर्तकाल अर्थात् चरमपुद्गलपरावर्त काल में आने के पहले के जो अनन्त पुद्गलपरावर्त का काल था, वह संसार परिभ्रमण का कारण होने से उसे "संसारबालकाल" कहा है, जबकि अन्तिम चरम पुद्गलपरावर्तकाल धर्मसन्मुखीकरण या धर्मप्रवेश का काल होने से इसे “धर्मयौवनकाल" कहा है । इस धर्मयौवनकाल में सत्य-सम्यग् धर्म को प्राप्त करके इस दुःखरूप संसार से मुक्त होने के शुभ परिणाम से जीव तथाभव्यत्वदशा का परिपाक होने के कारण यथाप्रवृत्तिकरण करने में अग्रसर होता है। यथाप्रवृत्तिकरण "यथाप्रवृत्ति" शब्द का सामान्य अर्थ यह है कि-यथा+प्रवृत्ति = यथाप्रवृत्ति । जैसी कर्मक्षय की प्रवृत्ति जीव पूर्वकाल में करता था अर्थात् अकामर्निजरावश जो कर्म खपाता था, वैसी ही प्रवृत्ति विशेष रूप से करता हुआ कर्म क्षय के लिए आगे बढ़ना, इसे यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं। अनादिकाल की कर्म बांधने और खपाने की प्रवृत्ति को यथाप्रवृत्ति कहते हैं। विशेष आदि सहयोग से इस यथाप्रवृत्तिकरण में जीव कर्मक्षय की तरफ और प्रबल शक्ति से आगे बढ़ता है। ऐकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय आदि जीव अनिच्छा होते हुए भी भूख, प्यास, धूप आदि दुःखों को परवशरूप से जो सहन करता है, उसमें जो कर्म की निर्जरा होती है उसे अकाम निर्जरा कहते हैं । ऐसे प्राणी मनुष्य, पशु-पक्षी आदि पंचेन्द्रिय पर्याय के भी हों, उनमें भी यदि इच्छा के बिना एवं समझशक्ति आदि के बिना, जो पढ़ना, चढना, गिरना, भूख, प्यास, धूप, जाड़ा, गरमी एवं मजबूरी वश किये जाते कामों में, जो दुःख पराधीनपने सहन करता है, उस समय जो कर्म की निर्जरा होती है, उसे अकामनिर्जरा कहते हैं । ऐसी अकामनिर्जरा करता हुआ जीव कई कर्मों की स्थितियां कम करता है। यद्यपि यह स्वेच्छा एवं समझपूर्वक नहीं होता है, तथापि कम स्थितियां जरूर घटती है। उदाहरण के लिए समझिये कि -जैसे “घूण" नामक कीड़ा जो लकड़े में रहता है, और लकड़ा काटता हुआ एक किनारे से दूसरे किनारे तक आता-जाता है, उस समय न जानते, न समझते हुए भी जो अक्षर उस काष्ठ पर पड़ते हैं, उसे घृणाक्षर कहते हैं, “घूण" कीड़े को यह खबर नहीं है कि मैं क्या कर रहा हूँ। फिर भी अ, इ, उ, ण, न, क, ड आदि अक्षर बन जाते हैं। ठीक वैसे ही मुझे कजिरा (कर्म की गति न्यारी ६७
SR No.002481
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy