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मिथ्यात्व का लक्षण-मिथ्यात्वमोहनीयकर्मपुद्गलसाचित्यविशेषादात्मपरिणामविशेषरूपत्वं मिथ्यात्वस्य लक्षणम् ।
मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के पुद्गल की प्रधानता के कारण आत्मा का जो परिणाम विशेष उत्पन्न होता है, उसे मिथ्यात्व कहते हैं । अर्थात् दर्शनमोहनीय कर्म की मिथ्यात्वमोहनीय कर्म प्रकृति के उदय से आत्मा के विपरीतज्ञान-अज्ञानरूप जो मिथ्या परिणाम उत्पन्न होते हैं उसे मिथ्यात्व कहते हैं। इसे ही, संक्षिप्त रूप से, सरल शब्दों में, इस तरह कह सकते हैं कि सर्वज्ञ प्ररूपित तत्त्व के विषय में श्रद्धा के अभावरूप जो विपरीतज्ञान-अज्ञानवृत्ति होती हैं उसे मिथ्यात्व कहते हैं अर्थात् तत्त्व के यथार्थ स्वरूप के विपरीत ज्ञानरूप अज्ञान को मिथ्यात्व कहते हैं ।
२१ रूप से मिथ्यात्व
शास्त्रों में मिथ्यात्व को समझाने के लिए भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से विस्तृत विचार किया गया है। यद्यपि मिथ्यात्व अपने अर्थ में विपरीत मिथ्या भाव वाला ही है, तथापि भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से भेद किये गये हैं; जिसमें प्रमुख रूप से, मिथ्यात्व के १० संज्ञाएं, स्वरूपगत पांच भेद, एवं लोकिक-लोकोत्तर दृष्टि से देवगुरु-धर्मगत ६ प्रकार का मिथ्यात्व है । ये कुल मिलाकर २१ प्रकार बनते हैं ।
२१ रूप से मिथ्यात्व
मिथ्यात्व की १० संज्ञाएं।
अभिग्रहिक आदि ५ भेद
लौकिक-लोकोत्तर देव-गुरु-धर्मगत ६ भेद
उपरोक्त २१ प्रकार के मिथ्यात्व का विस्तृत स्वरूप जानकर या समझकर उनमें बचने का विशेष प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि मिथ्यात्व पापरूप है एवं कर्मबंध का कारण है, अनन्त संसार में परिभ्रमण का मुख्य कारण है, आत्मगुण घातक है एवं विपरीतज्ञान तथा अज्ञान की जड़ है। अतः इससे सर्वथा बचना ही लाभदायक है।
मिथ्यात्व को पापस्थानक क्यों कहा?
शास्त्रों में मुख्यतः १८ पापस्थानक बताए गये हैं। इनमें अठारहवा मिथ्यात्वशल्य है । यहां यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि मिथ्यात्व को पापस्थानक
कर्म की गति न्यारी