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क्यों कहा ? प्रश्न भले ही आश्चर्यकारी हो लेकिन वास्तविकता में उतनी सच्चाई है। पहले तो हम यह सोचें कि पाप क्या है ? पाप क्यों और कैसे बनते हैं ? पाप से कर्म कैसे बंधता है ? तथा पाप का विपाक कैसा होता है ? यद्यपि इस विषय में तीसरी पुस्तक में विचार किया है, फिर भी प्रस्तुत अधिकार में संक्षेप में कुछ और सोच लेते हैं। जीव मन-वचन-काया के द्वारा प्रवृत्तियाँ करता रहता है । १. मन से सोचना विचारना २. वचन से बोलना आदि वाग्व्यवहार तथा ३. काया (शरीर) से शारीरिक प्रवृत्ति खाना-पीना-सोना-उठना-बैठना, चलना-फिरना, आना-जाना, देखनासुनना आदि प्रवृत्तियाँ करता रहता हैं । उपरोक्त मन-वचन-काया के तीनों तरीकों से जो भी प्रवृत्तियाँ होती है वह मात्र दो ही प्रकार की होती हैं अच्छी या बुरी । अच्छी को दूसरी भाषा में शुभ तथा बुरी को अशुभ कहते हैं । इन्हीं को शास्त्र की भाषा में पुण्य और पाप के नाम दिये जाते हैं। तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में पूज्य उमास्वामी म. ने "शुभः पुण्यस्थ" "अशुभः पापस्य'' इस सूत्र में स्पष्ट किया है । जीव मन से जो भी कुछ सोचता-विचारता है तथा वचन योग से जो भाषा का व्यवहार करता है एवं काया और इन्द्रिय से खाने-पीने, देखने-सुनने आदि की जो क्रिया करता है उनमें शुभ-अशुभ, अच्छी-वरी, या पुण्य-पाप की ही मुख्य दो प्रकार की प्रवृत्तियां होती है। शुभ-अच्छी प्रवृत्ति से पुण्योपार्जन होता है; और अशुभखराब प्रवृत्ति से पाप का उपार्जन होता है। ४२ प्रकार के कारण जिन कार्मण-वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं का आत्मा में आश्रव (आगमन) होता है. तथा आत्मसात् होकर जो कर्म पिण्ड बनता है, उसे कर्म कहते हैं। इस तरह पाप-कर्म (क्या है और कैसे बनते हैं) की प्रक्रिया है ।
मिथ्यात्व को पापस्थानक इसलिए कहते हैं कि इसमें मन के द्वारा तत्त्वादि के विषय में जो कुछ सोचा विचारा जाता है वह वास्तविक सत्य से विपरीत ही होता है, एवं अश्रद्धा तथा अजानरूप होता है। उसी तरह जंसा विचारता है वैसा व्यवहार में बोलता-चालता है । अतः इस प्रकार की मन-वचन-काया की विपरीतमिथ्या प्रवृत्ति पाप-कर्म बंधाने में कारण बनती है । मिथ्यात्व को अब्बल नम्वर का कर्मबंध का मुख्य हेतु गिना है । उमास्वाति म. ने तत्त्वार्थ में बताया है कि
मिथ्यादर्शनाविरति-प्रमाद-कषाय-योगा बन्धहेतवः ---मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पांच मुख्य रूप से कर्मबंध के हेतु है । इनमें सबसे पहला बंध हेतु मिथ्यात्व को बताया गया है। मिथ्यात्व आत्मा के सम्यग्दर्शन गुण का
कर्म की गति न्यारी