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मिथ्यात्व के ५ प्रकार
अभिगृहीक अनभिगृहिक अभिनिवशिक सांशयिक अनाभोगिक
१. अभिगहिक मिथ्यात्वअभिगृह अर्थात् एक प्रकार की पकड़ । कई लोग ऐसे भी होते हैं जो अपनेअपने मत का आग्रह रखते हैं। हमने जो ग्रहण किया है वही धर्म सच्चा है, भले ही वह गलत भी हो, झूठा भी हो, परन्तु हम तो इसे ही मानेमे, नहीं छोड़ेंगे ऐसा अभिगृह अभिगृहिक मिथ्यात्व कहलाता है । विपरीत बुद्धि के कारण अतात्त्विक किसी भी दर्शन को सत्य मानना एवं युक्त तत्त्वों के प्रति अश्रद्धा, रूप मति अभिगृहिक मिथ्यात्व कहलाती है । प्रवाह रूप से आई हुई ,मान्यता को बिना समझे विचारे पकड़ रखना, अपने मत का कदाग्रह (की हठ) रखना, उसमें सत्यासत्य को परीक्षा न करना, यह अभिगृहिक मिथ्यात्व कहलाता है। उदाहरणार्थ “तातस्य कुपोयमिति वाणाः कापुरुषाः क्षारं जलं पिवन्ति" "यह मेरे बाप का कुआ है" ऐसे बोलने वाले कायर पुरुष खारा पानी पीते रहते हैं। अन्यत्र मीठा पेयजल मिलने पर भी अपने हठाग्रह के कारण खारा पानी पीते रहना, और मीठा पानी पीने न जाना, यह अभिग्रहिक मति है। ठीक ऐसे ही हिंसाचारादि में धर्म बुद्धि मानकर उसे करते रहना, परन्तु अहिंसा के धर्म को न अपनाना, जैसे गाय को गौमाता मानकर, उसमें ३३ करोड़ देवताओं का वास मानकर, उसकी पूजा भी करना, और यज्ञ-याग-होम-हवन में उसका वध करने की हिंसा को भी धर्म मानने की बुद्धि यह सम्यग कैसे हो सकती है ? अश्वमेघ यज्ञ या पशु पुरोडाश वाले हिंसापरक यज्ञ से स्वर्ग प्राप्ति होती है, ऐसी मान्यता कैसे सम्यग् हो सकती है ? फिर भी हमारी मान्यता हम नहीं छोड़ेंगे, ऐसा मिथ्या आग्रह अभिग्रहिक मिथ्यात्व कहलाता है । सारंभी-परिग्रही, कुशीलवान को भी धर्म वुद्धि से पकड़कर रखना, उन्हें ही आदर्श मानना, एवं दुराग्रह-कदाग्रह वृत्ति से जिसका विवेक रूप दीपक बुझ गया है, ऐसे अविवेकी पाखंडी एवं पापाचार की भोगलीला चलाने वाले तथा उसे ही धर्म मानकर उसमें ही पड़े हुए एवं उसमें से बाहर न निकलने वाले अभिग्रहिक मिथ्यात्व से ग्रस्त हैं । इसमें सच्चे तत्त्वों के प्रति अश्रद्धा होती है। विपरीत समझ एवं अभिग्रह पकड़ की प्राधान्यता रहती है।
कर्म की गति न्यारी
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