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ऐसे और भी कई विषयों में अनेक संज्ञाएं हो सकती है । जैसे, वीतरागी-सर्वज्ञ भगवान को रागी-द्वेषी एवं अल्पज्ञ मानना या सर्वकर्ममुक्त सिद्धात्मा में भी रागद्वेष की संसारी बुद्धि रखना । सर्व कर्म रहित परमात्मा भी दैत्य-दानवों का दमन करते हैं, इच्छा पूर्ण करने वाले भगवान कहलाते हैं, या राग-द्वेष वाले भोगलीला करने वाले भी भगवान होते हैं ऐसी मान्यता रखना, यह मिथ्यात्व की मति है।
... इस तरह मिथ्यात्व के कारण जीव कई प्रकार की विपरीत मान्यताएं रखता है । मिथ्यात्वी का सारा ज्ञान विपरीत बुद्धि वाला होता है। ऐसे मिथ्यात्व को दो विभाग में विभक्त किये गये हैं-१. तत्व पदार्थ के विषय में यथार्थ श्रद्धा का अभाव रूप मिथ्यात्व, एवं २. अयथार्थ तत्त्व-पदार्थ पर श्रद्धा रूप मिथ्यात्व । वैसे आपाततः देखने पर दोनों भेदों में कोई विशेष अन्तर नहीं लगता है क्योंकि दोनों ही एक दूसरे के ठीक उल्टे हैं। फर्क इतना ही है कि पहला प्रकार मूढ़ या अज्ञान दशा में या समझदार ज्ञान वाले को भी होता है । इस दूसरे प्रकार के मिथ्यात्व में विचारशक्ति का या ज्ञानदशा का विकास होते हुए भी अभिनिवेश के कारण किसी एक दृष्टि को कदाग्रहवश पकड़कर रखने के कारण विचार शक्ति या ज्ञानदशा अतत्त्व के पक्षपात के कारण मिथ्या-दृष्टि हो जाती है। यह उपदेशजन्य होने के कारण अभिग्रहीत कहलाता है, जबकि पहले प्रकार में श्रद्धा का अभाव रूप जो मिथ्यात्व है उसमें विचार दशा विकसित हुई ही न हो, ऐसे अनादिकालीन कर्मावरण के दबाब से जो मूढ़ दशा होती है, ऐसे समय में तत्त्व की अश्रद्धा या अतत्त्व की श्रद्धा भी नहीं होती है। उस समय मात्र मूढ़ता के कारण अश्रद्धा अश्रद्धा कह सकते हैं। यह उपदेश निरपेक्ष, नैसर्गिक होने के कारण अनभिगृहीत कहलाती है। किसी दृष्टि पंथ या पक्ष या विपक्ष का ऐकान्तिक कदाग्रह अभिगृहीक मिथ्यात्व कहलाता है । यह अभिगृहीक मिथ्यात्व विकसित विचार शक्ति वाले मनुष्य में होता है । जबकि मूढदशा का अनभिगृहीक मिथ्यात्व कृमि-कीट-पतंग पशु-पक्षी आदि मूच्छित चैतन्य वाले जीवों में रहता है।
शास्त्रकार महर्षियों ने मिथ्यात्व के विषय में भिन्न-भिन्न पांच प्रकार बताएं हैं।
मिथ्यात्व के पांच प्रकारआभिग्गहिअमाणभिग्गह, च तह अभिनिवसिअंचेव । संसइअमणाभोगं, मिच्छतं पंचहा एअं ॥
कर्म की गति न्यारी