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सम्पन्न, सच्चे साधु महात्मा को साधुरूप या गुरुरूप न मानना यह भी मिथ्यात्व की वृत्ति है।
७. जीव को अजीव मानना
संसार की चारगति में ५६३ प्रकार के जो जीवों के भेद बताए गए हैं, ऐसे कृमि-कीट-पतंग-चूहा-बिल्ली, तोता-मैना, कौआ-कोयल, सांप-मोर, गाय-बैल, भेड़बकरी, हाथी, घोड़ा स्त्री-पुरुष एवं वनस्पतिकाय आदि स्थावरों में जीव होते हुए भी उनमें जीव न मानना, एवं वे जीव रहित हैं, अतः उन्हें मारने में, खाने में कोई पाप नहीं है, इस तरह चेतना लक्षण वाले जीव के अस्तित्व को न मानते हुए उल्टे अजीव निर्जीव हैं ऐसी बुद्धि रखना, यह मिथ्यात्व की संज्ञा है ।
८. अजीव में जीव बुद्धि
यह ऊपर के पक्ष से ठीक उल्टा है। शरीर, इन्द्रियाँ और मन जो कि जीव रूप नहीं है, जो जड़ है उन्हें जीव मानना, या पौद्गलिक पदार्थ के संयोजन से या रासायनिक संयोजन आदि से जीव उत्पन्न होता है, या जीव बनाया जा सकता है। इस तरह अजीव में भी जीव मानने की बुद्धि यह भी मिथ्यात्व की संज्ञा है ।
____E. मूर्त को अमूर्त माननाजो मूर्तिमान-साकार रूपी पदार्थ है उसे अरूपी-अमूर्त मानना जैसे पुद्गल स्कंध को अमूर्त-अरूपी मानना, या शरीर, इन्द्रिय, और मन को अरूपी-अमूर्त मानना, कर्म मूर्त होते हुए भी उसे अमूर्त मानना, यह विपरीत बुद्धि भी मिथ्या संज्ञा है।
१०. अमूर्त को मूर्त मानना
उपरोक्त बात का यह ठीक विपरीत भेद है। इसमें अरूपी अमूर्त आत्मा को रूपी एवं मूर्त-साकार मानते की बुद्धि होती है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय आदि अरूपी-अमूर्त पदार्थों को रूपी-मूर्त मानना, यह उल्टी मान्यता मिथ्यात्व की संज्ञा है।
इस तरह मिथ्यात्व के कारण जिसकी मति विपरीत हो चुकी हैं, वह ऐसी अनेक विपरीत मान्यताएं रखकर चलता है, एवं विपरीत व्यवहार भी करता है ।
'कर्म की गति न्यारी
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