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________________ १. धर्म में अधर्म संज्ञा क्षमा, मार्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, अकिचनत्व और ब्रह्मचर्य आदि दस प्रकार के धर्म को धर्म रूप न मानना, तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तपादि का धर्म भी न मानना, तथा दर्शन-पूजा, सामायिक-प्रतिक्रमण, आयंबिल-उपवास, तथा पौषध आदि को धर्मरूप न मानते हुए उसमें अधर्म बुद्धि रखना, यह पहली मिथ्यात्व की संज्ञा है। २. अधर्म में धर्म की संज्ञा हिंसा, झूठ. चोरी, दुराचार-व्यभिचार, एवं संभोग में समाधि, अनाचार आदि पाप प्रवृत्ति रूप अधर्म में धर्म की बुद्धि रखना या उसे धर्म मानना । . ३. सन्मार्ग को उन्मार्ग माननाजिससे आत्मा का कल्याण हो, पुण्य का बंध हो, या मोक्षमार्ग रूप जो सत्य मार्ग है, उसे उल्टा पाप मार्ग मानना, तथा साधु एवं श्रावक के यम-नियम आदि व्रत-महावतादि के मार्ग को गलत मार्ग मानना । इस तरह हितावह सुमार्ग को उन्मार्ग समझना। ४. उन्मार्ग को सन्मार्ग माननाजिससे स्वर्ग की प्राप्ति हो, उसे ही मोक्ष का मार्ग मान लेना, या पशुयाग, नरबलि, अश्वमेध यज्ञ, आदि हिंसा जन्य-योगादि से स्वर्ग-मोक्ष की प्राप्ति मानना, भोगलीला में ही धर्म मानना, अन्याय अनीति, कूटनीति, कुरीति आदि में भी पुण्य मानने की बुद्धि, आदि उन्मार्ग भी मिथ्यात्व कहलाता है। ५. प्रसाधु को साधु माननाधन-सम्पत्ति-ऐश्वर्य एवं भोगविलास वाले महाआरम्भी-परिग्रही एवं स्त्री-लुन्ध, मोहासक्त, परभावरत, एवं कंचन-कामिनी के भोगी, ऐसे वेशधारिओं को साधु मानना, या उन्हें गुरुरूप मानना यह मिथ्यात्व है । ६. साधु को प्रसाधु माननाजो सच्चे साधु हैं, गुण सम्पन्न हैं, कंचन-कामिनी के सर्वथा त्यागी, तपस्वी, पंचमहाव्रतधारी, आरम्भ-परिग्रह के त्यागी, पंचदिय सूत्र में वताए गए छत्तीस गुण २२ कर्म की गति न्यारी
SR No.002481
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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