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किसी एक को समझने से सभी समझ में आ सकते हैं। जैसे वस्त्र के विषय में सोचेंतीन अवस्था के वस्त्र का दृष्टांत लें। (१) रसोई घर के मैले कपड़े की तरह मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के सर्वथा अशुद्ध पुद्गल परमाणु होते हैं । (२) कुछ धोए हुए
और कुछ मैले ऐसे अर्धशुद्ध वस्त्र की तरह मिश्रमोहनीय कर्म की स्थिति रहती है, जिसमें सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दोनों के मिश्र पुद्गल परमाणु रहते हैं । (३) सर्वथा शुद्ध धोए हुए वस्त्र की तरह सम्यक्त्व मोहनीय कर्म के पुद्गल परमाण रहते हैं।
मिथ्यात्व का स्वरूप"यथा दृष्टि तथा सृष्टि" जिसकी जैसी दृष्टि होती है उसकी वैसी सृष्टि होती है। उदाहरण के लिए निर्दोष दृष्टि से सब कुछ दोष रहित दिखाई देता है, परन्तु यदि दृष्टि दोष युक्त है तो पदार्थ सदोष दिखाई देगा। यदि किसी को कमला (पीलिया) रोग हुआ हो तो, उसे सफेद दूध भी पीला दिखाई देता है। काले चश्मे पहने हुए व्यक्ति को सफेद कपड़ा आदि वस्तु काली दिखाई देती है । जैसी दृष्टि की बात है वैसी ही मति की भी बात है। दृष्टि से देखना होता है और मति से जाननामानना होता है। जैसे दृष्टि रोगादि कारणों से विपरीत बनती है, वैसे ही मति मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के कारण विपरीत बनती है। अतः विपरीत मति वाला जीव मिथ्यात्वी कहलाता है । ऐसा मिथ्यात्वी जीव सभी तत्त्वादि की बातों को -विपरीत ही जानता है और विपरीत ही मानता है। जैसे आत्मा-परमात्मा, पुण्य-पाप, धर्म-अधर्म, जीव-अजीव, लोक-अलोक, स्वर्ग-नरक, पूर्वजन्म-पूनर्जन्म, और बंधमोक्ष, तथा देवगुरु-धर्मादि तत्त्वों का स्वरूप वह सर्वथा विपरीत ही जानता है, और विपरीत ही मानता है । अतः उसे मिथ्यामतिजीव, मिथ्यादृष्टि, या मिथ्यात्वीजीव कहते हैं । अर्थात् जो जैसा है उसे वैसा ही न मानना, जिसका जैसा स्वरूप है उसका वैसा यथार्थ स्वरूप न मानना यह मिथ्यात्व कहलाता है । इस तरह प्रत्येक विषय में वह उल्टा-विपरीत ही चलता है। ऐसे मिथ्यात्व की भिन्न-भिन्न दस प्रकार की दृष्टियाँ या संज्ञाएं बताई गई हैं
मिथ्यात्व की १० संज्ञाएंधम्मे अधम्म, अधम्म-धम्मह, सन्ना मग्ग डमग्गाजी । उन्मार्गे मरग की सन्ना, साधु असाधु संलग्गा जी । असाधु मां साधु नी सन्ना, जीव-अजीव जीव वेदो जी, मुत्ते अमुत्त, अमुत्त मुत्तह, सन्ना 'दस भेदो जी ॥
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धर्म की गति न्यारी