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________________ २. अनभिग्रहिक मिथ्यात्व न अभिग्रह इति अनभिग्रह ! अभिग्रह अर्थात् पक्कड । न अभिग्रह अर्थात् जिसमें कदाग्रह-दुराग्रह नहीं है, परन्तु सच्चे-झूठे सबके प्रति समान बुद्धि है, उसे अनभिग्रहिक कहते हैं। जैसे मणि और कांच दोनों ही समान हैं। हीरा, रत्न और पत्थर सब एक सरीखे ही हैं। ऐसी ही मान्यता तत्त्व-धर्म-भगवानादि के विषय में रहती हो, उसे अनभिग्रहिक मिथ्यात्व कहते हैं। इसमें किसी एक ही भगवान या धर्म का कदाग्रह न रहते हुए, सभी भगवान या धर्म के प्रति समान बुद्धि रहती है । पीलेपन के कारण सोना और पीतल सभी एक सरीखे हैं ऐसा मानना । ठीक वैसे ही कोई विशेष तुलना या परीक्षा आदि न करते हुए धर्म-भगवान-एवं तत्त्व के विषय में भी समान बुद्धि या एकसी धारणा रखना, और कहना कि “सब भगवान भगवान ही तो है ।" इसलिए सभी भगवान एक ही हैं, "जगत् पिता एक ही है", "मात्र नाम भिन्न-भिन्न हैं।" "चाहे जो भी कोई नाम भजो भगवान-भगवान के बीच में कोई फर्क नहीं है।" उसी तरह सभी धर्म एक ही हैं। धर्म कोई अलग-अलग नहीं है । जैसे एक शहर तक पहुँचने के अनेक रास्ते हैं, चाहे जिस किसी रास्ते से जाओ, सभी रास्ते एक जैसे ही हैं । वैसे ही मोक्ष तक पहुँचने के लिए सभी धर्म मार्ग एक जैसे हैं । इसलिए सभी धर्म एक सरीखें ही हैं। ऐसी मान्यता अनभिगृहिक मिथ्यात्वी की होती है। ऐसा मिथ्यात्वी भेल-सेल-मिलावट-मिश्रण करने वाले व्यापारी के जैसा होता है। वह अच्छे-खराब सबका मिश्रण करके चलता है । रागी और वितरागी, द्वेषी और क्षमाशील, क्रोधी और समता के सागर, सर्वज्ञ और अल्पज्ञ, भोगलीला वाले और त्यागी तपस्वी, संसारी और मुक्त, कर्मरहित और कर्मसहित, अनभिग्रहिक मिथ्यात्वी सभी को एक जैसे भगवान के रूप में ही मानता है क्योंकि उसकी बुद्धि ही वैसी है। वह न तो प्ररीक्षा करता है और न ही तुलना करता है । जैसे मणिकांच, सोना-पीतल, हीरा-पत्थर, दूध-छाछ आदि सभी को एक मानने की बात करता है। मुख्य कारण तो यह है कि ऐसे मिथ्यात्वी में दरअसल या तो ज्ञान ही नहीं है या तुलना करने की बुद्धि ही नहीं है । इसमें यथार्थ समझ का अभाव एवं सरलता मुख्य रूप से कारण बनती है। मतिमंदता एवं जड़ता के मुख्य कारण से वह मिथ्यात्वी रहता है। जैसे एक फेरीबाला अपने माल की बिक्री के लिए रास्ते पर चिल्लाता रहता है-“सब एक-एक रुपया, सब एक-एक रुपया" "कोई भी वस्तु खरीदो, सब एक-एक रुपया' । ऐसा फेरीवाला जो दस पैसे, चार आने, आठ आने की वस्तु की कीमत भी एक रुपया, और दो-चार-आठ रुपये की वस्तु की कीमत कर्म की गति न्यारी
SR No.002481
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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