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________________ का अर्थ सर्वथा भिन्न-भिन्न है । दर्शनावरणीय कर्म में 'दर्शन' शब्द का अर्थ सामान्य रूप 'देखना' होते हुए भी पदार्थ का निविषेश-निर्विकल्प-निराकार सामान्य बोध प्राप्त कराने का था । विशेष ज्ञान के पहले होने वाला सामान्य ब बोध रूप दर्शन होता था । यह दर्शन आत्मा का दूसरा अनन्तदर्शन नामक गुण था। अनन्त दर्शन गुण आत्मा का एक स्वतन्त्र गुण हैं । उस पर आये हुए आवरण को दर्शनावरणीय कर्म कहा है। यह दर्शनावरणीय कर्म आत्मा के मात्र दर्शन गुण को आच्छादित करता है। दर्शनमोहनीय कर्म एक स्वतन्त्र कर्म है । आत्मा के तीसरे अनन्त चारित्रगुणयथाख्यातचारित्रगुण पर आये हुए आवरण का नाम है, मोहनीय कर्म । इसके भेद हैं-१. दर्शनमोहनीय, और २. चारित्रमोहनीय कर्म । दर्शनमोहनीय में प्रयुक्त 'दर्शन' शब्द का अर्थ सम्यग्दर्शन अर्थात् यथार्थ 'दर्शन' एवं सच्ची श्रद्धा के अर्थ में है । उसके साथ मोहनीय जुड़ने से दर्शनमोहनीय शब्द बना । दर्शन में भी अर्थात् सम्यग्दर्शनयथार्थदर्शन एवं तत्त्वादि के वास्तविक स्वरूप में आत्मा को मोहित करने का काम दर्शनमोहनीय कर्म करता है। यहां मोहित करना अर्थात् भ्रम पैदा करना, दुविधा उत्पन्न करना, या शंकाशील बनाना, अर्थ है । अतः दर्शनमोहनीय कर्म आत्मा को तत्त्व का यथार्थदर्शन (श्रद्धा) न करने देते हुए मिथ्यात्व दशा में रखने का काम करता है। इस तरह दर्शनमोहनीय कर्म और दर्शनावरणीय कर्म अपने-अपने अर्थ में स्वतन्त्र होने के कारण सर्वथा भिन्न है । दर्शनमोहनीय कर्मयथावस्थितदर्शन अर्थात् वस्तु तत्त्व का सही सत्य स्वरूप जैसा सम्यग् है, वैसा दर्शन कराना अर्थात् उसमें श्रद्धा कराना यह दर्शन है। इनमें मोहित करने वाला अर्थात् शंका, सन्देह एवं भ्रम की स्थिति उत्पन्न करने वाला दर्शनमोहनीय कर्म है । यह शुद्ध-अर्धशुद्ध एवं अशुद्ध की तरतमता से तीन प्रकार का है । सम्मतं घेव मिच्छत्तं, सम्मामिच्छत्तमेव य । एयाओ तिन्नि पयडीओ, मोहणिज्जस्स बसणे ॥ [उत्तरा. अ. ३३ श्लो. ९] सण-मोहं ति-विहं सम्मं मीसं तहेव मिच्छत्त। सुद्ध अड-विसुद्ध अ-विसुद्धतं हवइ कमसो । [कर्मग्रन्थ कर्म की गति न्यारी
SR No.002481
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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