SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करते हैं, अर्थात् जब दर्शनमोहनीय कर्म का पलड़ा झुका हुआ रहेगा तब चरित्रमोहनीय कर्म का पलड़ा चढ़ा हुआ रहता है, और यदि चारित्रमोहनीय का पलड़ा झुका हुआ रहेगा तब दर्शनमोहनीय का पलड़ा चढ़ा हुआ रहता है। जिस जीव में दर्शनमोहनीय कर्म के उदय का प्रमाण ज्यादा रहेगा उसमें श्रद्धा का प्रमाण कम रहेगा, या नहीं' भी रहेगा, या मिथ्यात्व का प्रमाण ज्यादा रहेगा। उसी तरह चारित्रमोहनीय कर्म के उदय का प्रमाण जिस जीव में ज्यादा रहेगा उसमें विषय-कषाय-विकार की मात्रा भी ज्यादा रहेगी । इस तरह सम्यक्त्व और मिथ्यात्व तथा विषय-कषाय आदि के प्रमाण का आधार दर्शनमोहनीय एवं चारित्रमोहनीय कर्म पर आधारित रहता है । जिस जीव का जितना क्षयोपशम कम-ज्यादा रहेगा उस जीव में उतने गुण-दोष भी कम ज्यादा रहते हैं । अतः यह निश्चित होता है कि यदि हमें मिथ्यात्व को हटाकर सम्यक्त्व प्राप्त करना हो तो दर्शनमोहनीय कर्म का क्षयोपशम या क्षयं करना पड़ेगा। तब आत्मा शुद्ध सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकेगी। उसो तरह यदि हमें विषय-कषाय नष्ट करके निविय एवं निष्कषाय भाव-समतादि आत्मगुण प्राप्त करने हों तो चारित्र-मोहनीय कर्म का क्षयोपशम या क्षय करना चाहिए । इस तरह दर्श नमोहनीय कर्म आत्मा का नास्तिकअश्रद्धालु एवं मिथ्यात्वी बनाता है । आत्मा के आस्तिक भाव सम्यग श्रद्धा आदि गुणों का नाश होता है। हमारी आत्मा का यह बहुत ज्यादा नुकसान कारक है, क्योंकि सम्यग् श्रद्धा एवं आस्तिकता आदि आत्मा के मूलभूत गुण हैं, और कर्म के उदय से यदि गुण दब जायेंगे तो दोष उभर आएंगे। ठीक वैसे ही कामक्रोधादि विषय-कषायादि आत्मा के गुण नही हैं परन्तु कर्मजन्य विकृति मात्र हैं । अनन्त चारित्रवान् आत्मा मूलतः राग-द्वेषादि कषाय रहित क्षमा-समता वाली है, और विषय-विकार रहित शुद्ध ब्रह्मचारी है, परन्तु चात्रिमोहनीय कर्म के कारण आत्मा वैसी विषय-कषायी अर्थात् काम-क्रोध-मान-माया-लोभ राग-द्वेष वाली बनती है ! इस तरह आन्मा के मूलभूत गुणों की प्रकृति और कर्मजन्य विकृति की यह मीमांसा की है। दर्शनावरणीय और दर्शनमोहनीय कर्म में अन्तरगत प्रवचन में दर्शनावरणीय कर्म के विषय में विचार किया था । अब यहां प्रस्तुत अधिकार में दर्शनमोहनीय कर्म का विचार किया जा रहा है। यद्यपि दोनों नामों में 'दर्शन' शब्द की सादश्यता जरूर है, फिर भी दोनों में प्रयुक्त 'दर्शन' शब्द कर्म की गति न्यारी
SR No.002481
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy