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________________ ३+-१६+६+३ = २८ इस तरह संक्षेप में उपरोक्त तालिका में मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियां बताई गई हैं । मोहनीय कर्म के अवान्तर भेद २८ होते हैं। दर्शनमोहनीय एवं चारित्रमोहनीय कर्म--- मोहनीय कर्म दर्शनमोहनीय चरित्रमोहनीय मन्जं व मोहणीयं, दु.वह बंसण चरणे मोहा । कर्मग्रन्थकार महर्षि ने मदिरा जैसे इस मोहनीय कर्म को १. दर्शनमोहनीय मोर २. चारित्रमोहनीय दो प्रकार का बताया है। इन दोनों का अपना-अपना स्वतन्त्र कार्य क्षेत्र है। अतः मोहनीय कर्म के ये दो स्वतन्त्र स्तम्भ माने जाते है । मूलतः मोहनीय कर्म का काम आत्मा को मोहित करने का है। उसमें भी दर्शनमोहनीय आत्मा को अज्ञान में एवं अश्रद्धा में मोहित करता है, जबकि दूसरा बारित्रमोहनीय कर्म आत्मा को विषय-कषाय की प्रवृत्ति में आसक्त करता है। ये दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय दोनों ही कर्म आत्मा के ऊपर बड़ा भारी आक्रमण करते हुए आत्मा की आचार-विचार दोनों की प्रवृत्तियों को पंगु बना देते हैं । दर्शनमोहनीय कर्म आत्मा की विचार शक्ति पर आक्रमण करके उसे विपरीतधारा वाली अश्रद्धा जनक मिथ्यादृष्टिवाली विचारधारा बना देता है । परिणाम स्वरूप आत्मा मश्रद्धालु बनती है। चारित्रमोहनीय कर्म आत्मा की आचारसंहिता को तोड़कर उसे शुद्ध चारित्रगुण में रमण नहीं करने देता हैं। अर्थात् अपने मूलभूत निष्कशाय-निविषय भावों में एवं समतादि गुण में प्रवृत्ति न करने देते हुये उसे विषय-कषाय की प्रवृत्ति में बाध्य करता है। इस तरह दोनों ही कर्म और आत्मा की आचार-विचार की शक्ति को विकृत एवं विपरीत करते हैं। इनमें जिस कर्म का क्षयोपशम या बंध का प्रमाण जितना कम-ज्यादा रहेगा उतने ही आत्मा के गुण-दोष भी कम-ज्यादा रहेंगे ।. उदाहरणार्थ-एक तराजू का दृष्टांत लिया जाय । तराज के पलड़े में यदि एक तरफ वजन कम रहता है, तो दूसरी तरफ वस्तु का प्रमाण बढ़ता है, गौर यदि वस्तु का प्रमाण कम रहता है तो वजन का प्रमाण बढ़ता है, और जब दोनों ही समकक्ष होते हैं, तब वस्तु और वजन समान मान लिए जाते हैं। वैसी ही दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय दोनों कर्म एक तराजू के दो पलड़ों की तरह काम कर्म की गति न्यारी
SR No.002481
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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