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________________ मोहनीय कम कर्मशास्त्र का नियम है कि जीव "जैसा करता है वैसा भरता है ।" अर्थात् जैसे पाप करता है वैसे ही कर्म समय आने पर उदय में आते हैं । बांधे हुए कर्म उदय में आने पर जीव की वैसी स्थिति निर्माण होती है। उपरोक्त पाप प्रवृत्तियों का करने वाला जीव जो दर्शनमोहनीय कर्म उपार्जन करता है, वह मोहनीय कर्म का मात्र एक भेद हैं। परन्तु मोहनीय कर्म दर्शनमोहनीय और चरित्रमोहनीय के भेद से मुख्यतः दो प्रकार का बताकर उसके अवान्तर २८ भेद बताए गए हैं । मोहणिज्ज पि दुविहं, सणे बरणे तहा। सणे तिविहं वृत्तं, चरणे दुविहं भवे ॥८॥ सम्मले चेव मिच्छत्तं, सम्ममिच्छत्तमेव य । एयाओ तिन्नि पयडीओ, मोहणिज्जस्स सणे ॥९॥ चरितमोहणं कम्म, दुविहं तं वियाहियं । कसायमोहणिज्जं तु, नोकसायं तहेव च ॥१०॥ सोलसविहभेएणं, कम्म तु फसायजं । . सत्तविहं नवविहं वा, कम्मं नोकसायनं ॥११॥ . [उत्तरा अ. ३३ श्लो. ८/११] श्री उत्तराध्यन सूत्र आगम में बताए गए मोहनीय कर्म के भेद उपरोक्त श्लोक में बताए गए हैं। मोहनीय कर्म-२८ भेद दर्शनमोहनीय-३ चारित्रमोहनीय-२५ सम्यक्त्व मोहनीय मिश्रमोहनीय मिथ्यात्व मोहनीय कषायमोहनीय १६ नोकषायमोहनीय वेदमोहनीय कर्म की गति न्यारी
SR No.002481
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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