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मोहनीय कर्मबंध के प्राश्रव कारण
समस्त संसार में कार्य-कारणभाव का एक विशेष सम्बन्ध होता है । प्रत्येक कार्य के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य ही होता है ।
"कार्य नियतपूर्ववृत्तित्वं कारणं" कारण के इस लक्षण के आधार पर हमेशा कारण कार्य के ठीक पूर्व में रहता है। जैसे घड़े के पूर्व से मिट्टी कारण है, और धए के पहले अग्नि कारण होती है।
जिस तरह बिना कारण के कोई कार्य नही होता, उसी तरह संसार में रागी-द्वेषी आस्तिक-नास्तिक, धर्मी-अधर्मो, सम्यक्त्वी-मिथ्यात्वी, विषयी-कषायी आदि गुण-दोषवान् जीवों के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य ही होना चाहिए । कर्म युक्त जीव सकर्मी कहलाता है। अतः कर्म के पीछे कारण होना अनिवार्य है । कर्म का कारण महापुरुषों ने पाप बताया है । मिट्टी और अग्नि की तरह पाप का व्यवहार अर्थात् अशुभ क्रिया पहले होती है, और उससे कर्म बंधता है। पाप प्रवृत्ति कारण है और कर्मबंध कार्य है। भिन्न-भिन्न कर्मों के पीछे जीवों की भिन्न-भिन्न पाप प्रवृतियां कारण बनती हैं। प्रस्तुत विषय में मोहनीय कर्मबंध के विशेष पाप-कारण देखने हैं । मोहनीय कर्म के मुख्य दो भेद-विभाग हैं - १. दर्शनमोहनीय कर्म और २. चारित्र मोहनीय । यहां प्रथम दर्शन मोहनीय कर्म का अधिकार लिया गया है। अतः सर्वप्रथम दर्शनमोहनीय कर्मबंध के कारण पर विचार किया जा रहा है । कमग्रन्थकार एवं तत्त्वाथाधिगम सूत्र के कर्ता आदि ने भिन्न-भिन्न पाप-प्रवृत्तियों का निर्देश करते हुए कहा है कि
उमग्ग-देसणा-मग-नासणा-देव-वन्ध हरणेहि । सण-मोहं जिण-मुणि-घेइअ-संद्या-इ-पडिणीओ ॥
[कर्मग्रन्थ प्रथम ५६]
केवलि-श्रुत-संघ-धर्म-देवाऽवर्णावादो दर्शनमाहनस्य ॥६-१४।।
-उन्मार्ग-गलतमार्ग का उपदेश करना, सच्चे मार्ग का लोप करना, या गलत मार्ग को सही कहना, और सही मार्ग को गलत बताना, देव द्रव्य का अपहरण करना, जिनेश्वर परमात्मा, साधु मुनिराज, जिन-मन्दिर-मूर्ति, तथा साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका रूप सकल चतुर्विध संघ का प्रत्यनिक अर्थात् विरुद्धगामी या विरोधी
कर्म की गति न्यारी
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