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होना आदि प्रवृत्ति से दर्शनमोहनीय कर्म उपार्जन किया जाता है । केवलज्ञानी - सर्वेज्ञ
भगवान सूत्र - शास्त्र, श्री संघ, धर्म, देवों का अवर्णवाद कहना अर्थात् उनके विषय में विपरीत कहने मे या उनकी निंदा टीका करने से दर्शनमोहनीय कर्म का बंध होता है । ऐसा तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के कर्ता उमास्वाती महाराज कहते हैं
उन्मार्ग प्ररूपण करना यह एक महापाप है । आनन्दघनजी महाराज ने १४वें अनंतनाथस्वामी के स्तवन में कहा है कि
पाप नहि कोइ उत्सूत्र भाषण जिस्यो, धर्म नहीं कोइ जगसूत्र सरीखो । सूत्र अनुसार जे भविक किरीया करे, तेहनुं शुद्ध चरित्र परीखो ||
अर्थात् उत्सूत्र प्ररूपण जैसा कोई पाप नहीं है और सूत्र - शास्त्र - सिद्धान्त की प्ररूपणा करने जैसा जगत में कोई धर्म नहीं है । उसी तरह शास्त्र - सिद्धान्त के अनुरूप जो क्रिया करता है उसीका शुद्ध चारित्र कहा गया है । इससे यह स्पष्ट होता है कि उन्मार्ग या उत्सूत्र को प्ररूपणा करने के कारण जीव बड़ा भारी पाप उपार्जन करता है । स्वयं सिद्धान्त के रहस्य को समझ नहीं पाता है और दूसरों को भी गलत समझाता हैं । भ्रम का जाल खड़ा करके धर्म के ओठे के नीचे अधर्म का प्रचार करता है । अधर्म या पापाचार को ही धर्म के नाम पर फैलाता है । अपने बुद्धि-चातुर्य से अधर्म को धर्म रूप में समझाकर या तत्त्वो का मनमाना अर्थ करके या सिद्धान्तों का अपने ढंग से स्वार्थपूर्ण अर्थ करके लोगों को गलत रास्ते ले जाना उल्टी दिशा बताना, यह उन्मार्ग की प्ररूपणा करने का महापाप है । इससे जीव देव - गुरू-धर्म के विपरीत बोलना, या वृत्ति धारण करते हुए विपरीत व्यवहार
दर्शनमोहनीय कर्म बांधता है । उसी तरह उनका विरोधी (प्रत्यनिक) बनकर वैमनस्य करना, यह दर्शनमोहनीय कर्म उपार्जन करने का कारण है ।
सर्वज्ञ - केवलज्ञानी भगवान जो अनन्तज्ञानी हैं, उनके विषय में भी गलत बोलना, उनकी हंसी उडाना, तथा सर्वज्ञ तीर्थकर प्रणीत तथा गणधर रचित आगम श्रुत-शास्त्रों की आशातना करना, उनके विषय में "हम्बक" है ऐसा कहना, यह भी दर्शनमोहनीय कर्म बांधने का पाप व्यवहार है, साधु-साध्वी - श्रावक-श्राविका रूप चतुविध श्री संघ के विषय में अवर्णवाद अर्थात् निंदा-टीका करना, उनका अपमान
कर्म की गति न्यारी
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