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जीव दुःखी होता है। अतः इससे यह सिद्ध होता है कि जीव का दुःख भी उसकी मोहदशा के कारण होता है। इसलिए जीव को स्वगुण स्मणता के अनन्त चारित्र गुण में रहना चाहिये । परन्तु संसार की राग-द्वेष की प्रवृत्तियों के कारण जीव उसमें ऐसा फंस जाता है जैसे रेशम का कीड़ा अपने जाल में फँसता है, जैसे रेशम का कीड़ा अपने ही मुह से यूंक की लार निकालकर उसके रेशे बनाता है और अन्त में स्वयं उसी में उलझ जाता है। मकड़ी भी ऐसा ही करती है। इसी तरह जीव इस संसार में मोह-ममत्व की रागद्वेष वाली प्रवृत्ति करता है तथा उससे मोहनीय कर्म उपार्जन करता है, और अन्त में स्वयं अपने बिछाए हुए मोह. जाल में फंस जाता है, जैसे खाने गई मछली जाल में फंसती हो। जीव स्वयं राग-द्वेषासक्त होकर तथाप्रकार की मोह ममत्व की प्रवृत्ति करता हुआ मोहनीय कर्म बांधता है और पुनः उस मोहनीय कर्म के उदय में आने पर फिर वैसी मोह की प्रवृत्ति करता है । इसी तरह राग-द्वेष से मोह, और मोह से पुनः राग-द्वेष, फिर मोह और राग-द्वेष की प्रवृति करता हुआ संसार में काल बिताता रहता है ।
मरण-दुःख-सुख-कर्म-राग-द्वेष-राग .
कर्म
जन्म
जीव
_| राग कषाय -ममत्व -मोह -द्वेष -
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रागो य दोसो वि य कम्मबीयं,
कम्मं च मोहप्पमवं वंयति। कम्मं च जाईमरणस्स . मूलं,
बुक्खं च जाईमरणं वयंति ॥
- [उत्तरा. अ. ३२/७]
-राग-द्वेष ही कर्म के बीज हैं, और कर्मो को ही मोह से उत्पन्न हुआ कहते हैं । कर्म ही जन्म-मरण का मूलभूत कारण है, और जन्म मरण को ही दुःख कहा गया है । इस तरह मोहनीय कर्म के मूल बीज जो राग-द्वेष है, उसकी प्रवृत्ति करने से जीव मोहनीय कर्म उपार्जन करता है । कर्मशास्त्र एवं तत्त्वाथाधिगम सूत्र में मोहनीय कर्म बांधने के आश्रव मार्ग एवं बंध हेतु निम्न प्रकार से बताए गए हैं ।
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कर्म की गति न्यारी