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१. अरिहंत के
२. सिद्ध के
३. आचार्य के
४.
५.
उपाध्याय के
साधु के
इन पांचों (पंच परमेष्ठि) के कुल
१२ गुण
८ गुण
३६ गुण
२५ गुण
२७ गुण
१०८ गुण हैं ।
उपरोक्त गुण ही पंच परमेष्ठि के स्वरूप के द्योतक हैं। गुण ही गुणी के सच्चे द्योतक होते हैं अर्थात् गुण से ही गुणी का सच्चा स्वरूप पहचाना जाता है । गुण और गुणी में अभेद सम्बन्ध है ।
रखें और अन्य १-२ के प्रति सही अर्थ में सम्यक्त्वी नहीं
" एसो पंच नमक्कारों" पद में संख्यावाची "पंच" शब्द से "न न्यूनाधिक्य" का स्पष्ट बोध होता है, अर्थात् पाँच से तो न कम और न ही अधिक, निश्चितता एवं स्थिरता का बोध “पांच " शब्द कराता है । अतः न न्यून याने इन पांच परमेष्ठि से कम संख्या में अर्थात २-३ या ४ ही मानें ओर १-२ को न मानें तथा माने हुए २ - ३ को ही नमस्कार करें, उन्हीं के प्रति श्रद्धा श्रद्धा न रखें, न मानें, नमस्कारादि न करें, वह कहलायेगा । इन पंच परमेष्ठि में दो देव और तीन गुरु मिलाकर पांच होते हैं । अरिहंत और सिद्ध ये दो देव (भगवान) है और आचार्य, उपाध्याय एवं साधु ये तीन गुरु हैं । कोई यह कहे कि मैं तो प्रत्यक्ष दिखाई देते, इन गुरुओं को ही मानता हूं परन्तु देव तत्व जो परोक्ष हैं, उन्हें नहीं मानता हूँ तो बह पांचों ही परमेष्ठि को न मानने के कारण मिथ्यात्वी कहलाता है । ठीक इससे विपरीत कोई देव तत्व को मानें और गुरु तत्व को न मानें तो वह भी मिथ्यात्वी कहलाता है । अतः " एसो पंच नमक्कारो पद से पांचों ही परमेष्ठि को संयुक्त रूप से मानते हुए, नमस्कार करना यही सम्यग् दर्शन है । न न्यूनाधिक अर्थात् कम-ज्यादा मानना ।
व्यक्तिगत समकित देने की दुकान
सम्यक्त्व कोई बाजारू चीज नहीं है अर्थात् २-५ रुपये में यह बाजार में किता नहीं है । सम्यक् दर्शन यह आत्मा का गुण है, जो तत्वार्थ श्रद्धा से प्रकट होता
कर्म की गति न्यारी
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