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विषय में भी मात्र ऐसे लोकोत्तर आप्त महापुरुष जो सर्वज्ञ वीतरागी भगवान हैं, उन्हीं के द्वारा कहे गये सर्वज्ञोपदिष्ट मार्ग को धर्म मानना । इसी में सम्यक्त्व है।
इस तरह सम्यक्त्व की समझ-सम्पूर्ण दृष्टि, वृत्ति आदि सत्य की तरफ होती है। वह प्रत्येक बात में सत्य स्वरूप को ही जानने, देखने, मानने का आग्रह रखता है । अतः सम्यक्त्वी, सत्यान्वेषी, सत्य का आग्रही होता है । ऐसे सम्यक्त्व में जीवादि जो तत्व हैं, उन्हें भी उसी रूप-स्वरूप में मानना-स्वीकारना होता है ।
ऐसा नहीं होता कि पदार्थ का स्वरूप कुछ और ही है और उसे जानने में हम कुछ और ही जान रहे हैं या विपरीत जान रहे हैं। तो वह सम्यक्त्व न होकर मिथ्यास्वरूप होगा।
भ्रम मूलक व्याख्या और अर्थसंसार में ऐसे कई मिथ्यामति जीव हैं जो अपने बुद्धिबल एवं कुतर्क तथा कुयुक्तियों के आधार पर संसार के मूलभूत जो सही तत्वादि पदार्थ हैं उनको अपने ढंग से, अपनी पद्धति की व्याख्या से समझाते हैं। तत्वों के नाम तो वे ही रखेंगे । जीव, अजीव, पुण्य-पाप-मोक्ष आदि नाम तो वही होंगे परन्तु अर्थ एवं व्याख्या अपने ढंग की मनमानी तरीके से करेंगे । जसे आत्मा के बारे में कई कहते हैं-'देहात्मा" अर्थात वे देह और आत्मा को एक ही मानते हैं। उनके अनुसार देह ही आत्मा है । वे यह मानने को कदापि तैयार नहीं होते है कि आत्मा शरीर से अलग है । आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व है। इसी प्रकार संसार में कुछ व्यक्ति ऐसे भी है, जो इन्द्रियों को ही आत्मा मानते हैं । कोई-कोई ऐसे भी हैं जो मन को ही आत्मा मानते हैं ! कोई प्राण को आत्मा मानते हैं । कोई ब्रह्म को आत्मा मानते हैं। वे अन्य जीव में आत्मा नहीं मानते।
संसार में कोई कहते हैं कि एक ही आत्मा है । दूसरे कहते हैं कि आत्मा नाम की कोई वस्तु है ही नहीं। कुछ आत्मा मानकर, उसे क्षणिक विनाशी मानते हैं । तो कोई उसे कूटस्थ, नित्य, एकान्त, नित्य या एकान्त-अनित्य ही मानते हैं । लेकिन "उत्पाद-व्यय ध्रौव्ययुक्त" यथार्थ स्वरूप में नहीं मानते हैं। कोई आत्मा को भी जड़ रूप में मानते हैं। तो कोई आत्मा को भी पंच महाभूत जन्य मानते हैंपृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु. आकाश आदि पांच महाभूतों के सम्मिश्रण से उत्पन्न हुई,
कर्म की गति न्यारी