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________________ आत्मा को मानते हैं । तो कोई Chemical Compound याने रासायनिक प्रक्रिया से उत्पन्न हुई आत्मा मानते हैं। तो कोई आत्मा को अनादि, अनन्त, असंख्य प्रदेशी नहीं मानते हैं । तो कोई आत्मा को ज्ञान-दर्शनादि गुणवान नहीं मानते हैं । तो कोई ऐसे भी हैं जो आत्मा को शून्य रूप मानते हैं। कुछ कहते हैं, आत्मा है ही नहीं। तो कोई आत्मा शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थ लगाते हैं। इस तरह यह तो केवल आत्मा के बारे में विवाद या मतमतान्तर की बात हुई । एक आत्मा तत्व के बारे में लोगों की सैकड़ों तरह की भिन्न-भिन्न मान्यताएँ हैं। ठीक इसी तरह आत्मा, परमात्मा. जीव, अजीव, पुण्य-पाप, सुख-दुःख, धर्म-कर्म, स्वर्ग-नरक, लोक-परलोक, इहलोकअलोक, पूर्वजन्म-पुनर्जन्म. आश्रव-संवर, वंध-मोक्षादि अनेक तत्वों के विषय में जो यथार्थ वास्तविक स्वरूप एवं अर्थ है, वैसा न मानते हुए, न कहते हुए, वे अपनी मन घडन्त व्याख्या एवं अर्थ करके जगत के भोले-भाले जीवों को माछीमार की तरह अपने जाल में फंसाते हैं। अपने पक्ष में या मत में खींचते हैं। यह सारी स्थिति मिथ्यादशारूपी-मिथ्यात्व की प्रवृत्ति है। इससे कई कोरी-स्लेट या कोरे कागज जैसे जीव भ्रमवश मार्ग-भ्रष्ट हो जाते हैं। वे अज्ञान मूलक मिथ्यात्व की दिशा में चले जाते हैं । परिणामस्वरूप सच्चे सम्यग् ज्ञान से वंचित रह जाते हैं । इसलिये . भा' 'तमेव सच्वं निः संकं जं जिणेहि पवेइयं ।" की व्याख्या अवश्य स्वीकारनी चाहिये । “वही सत्य, निःसंक (शंको रहित) है जो सर्वज्ञ वीतरागी जिनेश्वर भगवान ने प्रतिपादित किया है ।" जो सर्वथा सत्य है उसी पर श्रद्धा रखनी चाहिए। इसी को सच्ची सम्यग् श्रद्धा मानेंगे । इसी आधार पर आत्मा से मोक्ष तक के सभी तत्वों का ज्ञान भी सम्यग् ही करना चाहिये । सोने में सुगन्ध की तरह ज्ञान और श्रद्धा (दर्शन व ज्ञान) सम्यग् होने पर यदि आचरण याने चारित्र भी सम्यग् बन जाय, चारित्र इनके साथ मिल जावे तो, इस तरह दर्शन-ज्ञान व चारित्र तीनों सम्यग्रूप से इकट्ठे हो जाएँ तो वह मोक्ष मार्ग बन जाता है । इसीलिए कहा है "सम्यग् दर्शन ज्ञान-चारिवाणि मोक्ष मार्गः ।" ऐसे मोक्ष मार्ग को प्राप्त करके जीव मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार मोक्ष की प्राप्ति में सम्यक्त्व की सर्वप्रथम आवश्यकता होती है। इस प्रकार के सम्यक्त्व को समझने के लिए शास्त्रकार महर्षियों ने सम्यक्त्व को अनेक प्रकार से दर्शाया है । १०० कर्म की गति न्यारी
SR No.002481
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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