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है। यहां तक कि वह हर घड़ी "मैं और मेरा"-"मैं और मेरा" करता रहता है। मानों "मैं और मेरा" उसका जप मन्त्र ही बन गया हो। इस बात को 'ज्ञानसार अष्टक' में उपाध्यायजी महाराज इस तरह कहते हैं कि "अहं ममेति" मन्त्रोऽयं मोहस्य जगदान्ध कृत् । “मैं और मेरा" यह मोहनीय कर्म का मूल मन्त्र जगत के सभी जीवों को मोह में अन्धा बता देता है। संसार में जीव जितना भगवान के मन्त्र का जप नहीं करता, शायद उससे हजार गुना जप वह मोहनीय कर्म के इस मन्त्र का करता होगा । संसार में यह स्पष्ट दिखाई देता है कि प्रत्येक व्यक्ति कदम-कदम पर "मैं और मेरा" की बात करता है, व्यवहार करता है। इतना ज्यादा करता है कि मानो वह मोहनीय कर्म का मन्त्र ही जप रहा हो। चाहे वह जिस किसी भाषा को बोलने वाला हो, किसी भी देश या धर्म विशेष का क्यों न हो, पर वह अपनी-अपनी भाषा में "मैं और मेरेपने" का व्यवहार करता रहता है
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हिन्दी में गुजराती में मराठी में संस्कृत में अंग्रेजी में
मैं और मेरा ।
हैं अने मारू । __मी आणी माझा ।
अहम् माम। I AND MY.
भिन्न-भिन्न देशों की भाषा भले ही भिन्न हो, शब्द रचना भले ही भिन्न हो, परन्तु मोहनीय का ममत्व सर्वत्र एक सा ही है। सभी के शब्दों में मोह-ममत्व की गंध एक सी ही रहती है । व्यक्ति अपने दैनिक व्यवहार में “मैं और मेरा" शब्द का प्रयोग सैकडों बार करता है । जैसे मैं खाऊंगा, मैं पीऊंगा, मैं बोलूंगा, मैं आऊंगा, मैं जाऊगा, मैं सोऊंगा, मैं बैलूंगा, मैं करूंगा, आदि, तथा मैंने ऐसा किया है, मैंने वैसा किया किया है, यह मैंने बनाया है, यह मैंने जीता है, इसे मैंने जीताया है, इसे मैंने बनाया है, इसे मैंने लगाया है, आदि व्यवहार में बोलते हुए मैं मैं का व्यवहार इतना ज्यादा करता है कि-मानों बकरी की तरह मैं..."मैं... मैं... मैं करता रहता है। उसी तरह बार-बार मेरा घर-मेरा मकान, मेरा पुत्र -- मेरा पौत्र, मेरी पत्नी-मेरी गाड़ी, मेरा पैसा-मेरा कपड़ा, मेरी दुकान, मेरी सम्पत्ति, मेरी सत्ता, मेरी गद्दी, मेरा शरीर, मेरा पिता, इस तरह प्रत्येक वस्तु में वह बार-बार मेरेपन का ममत्व दिखाता हुआ सैकड़ों बार बोलता रहता है। अतः सारा संसार मनुष्य ने मोहनीय कर्म का
कर्म की गति न्यारी