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है । अन्य पदार्थों का ही उसे आकर्षण (राग) लगा रहता है। उनके संयोग वियोग में सुखी-दुःखी रहती है, उन्हीं के निमित्त राग-द्वेष करती है, और विषय-कषाय खड़े करती है । इस प्रकार मोहनीय कर्म में दबी हुई आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को विकृत कर देती है।
मोहनीय कर्म की उपमा"मज्ज व मोहणीय"-कर्मग्रन्थकार पूज्य देवेन्द्रसूरि महाराज ने कर्मग्रन्थ में "मज्ज व मोहणीयं" शब्द का प्रयोग करके मोहनीय कर्म को मदिरा तुल्य बताया है, मदिरा की उपमा दी है। विकृति एवं विपरीतता की सभ्यता के आधार पर मोहनीय कर्म और मदिरा में सादृश्यता दिखाते हुए तुलना की है। जैसे मदिरा-शराब सब काम विपरीत कराती है, वैसे ही मोहनीय कर्म भी आत्मा को सब कुछ विपरीत ही कराते हुए विभाव दशा में रखता हैं। किसी ने शराब पी होतो, वह व्यक्ति अपने । परिवार में सबसे विपरीत व्यवहार करता है, शराब के कारण उसका ज्ञान कुण्ठित होकर अज्ञान दशा में परिणत होता है और वह मोहित होकर पत्नी को मां और मां को पत्नी समझने लगता है, और उनके साथ वैसा व्यवहार करने लगता है । यह कितना विपरीत-गलत व्यवहार है । मां के साथ पत्नी जैसा व्यवहार करें और पत्नी के साथ मां के जैसा व्यवहार करें, यह कितना उल्टा व्यवहार होगा ?
ठीक वैसे ही मोहनीय कर्मग्रस्त आत्मा, जो पुद्गल पदार्थ अपने नहीं है, उन्हें अपना मानने लगती है, और जो अपने ज्ञान-दर्शनादि गुण हैं उन्हें भूलकर अन्य पदार्थों में अपनी ममत्त्व बुद्धि रखती है। अपना है उसे अपना न मानकर, पराये में ममत्व बुद्धि रखकर उसे अपना मानने की वृत्ति मोहनीय कर्म की हैं। इस तरह जो पत्नी नहीं उस "मां" को पत्नी मानने की विपरीत प्रवृत्ति वाले शराबी के जैसा ही मोहनीय कर्म है । अतः महापुरुषों ने यह उपमा उचित ही दी है।
मोहदशा की प्रवृत्तिमोहनीय कर्म वाली संसारी आत्मा संसार में हमेशा ही मोह-ममत्व प्रधान व्यवहार करती है। उसके सारे व्यवहार में 'ममत्व' की 'मेरे पने की' गंध आती
कर्म की गति न्यारी