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उदाहरण के लिए मानों कि - पिता ने पुत्र को अपने गांव से एक वस्तु लाने के लिए कहा । पुत्र गांव गया । उस वस्तु के लिए पूरी छानबीन की, परन्तु वस्तु नहीं मिली । अतः पुनः आकर पुत्र ने पिता से कहा कि वस्तु गांव में नहीं है । इस बात से यह निश्चित होता है कि वस्तु है या नहीं है, यह कहने के लिए भी हमें वस्तु क्षेत्र में जाकर देखना पड़ता है, तब ही निर्णय कर पाते हैं कि वस्तु है या नहीं है। बिना देखे हम निर्णय नहीं कर पाते, और अपने घर बैठे दूर गांव में या वस्तु के क्षेत्र में नहीं देख पाते हैं, क्योंकि हम कर्मावरणग्रस्त है । हमारी शक्ति दर्शनावरणीय कर्म से दबी हुई है । अतः एक स्थान में बैठे हुए दूर स्थान की वस्तु देखना मुश्किल हैं । दर्शनावरणीय कर्मावरणग्रस्त जीव इन्द्रियों को सीमित एवं मर्यादित शक्ति से देखता है । वह सीधे आत्मा से नहीं देख पाता है । दूसरे प्रकार का जीव जो दर्शनावरणीय कर्म से रहित है वह बिना किसी इन्द्रियों के सीधे आत्मा से देख सकता है । सीधे आत्मा से देखने को “आत्मदर्शन" कहते हैं । यही अन्त दर्शन या केवल दर्शन कहलाता है । यह केवल दर्शन अनिन्द्रिय, असीमित, अमर्यादित एवं अपरिमित अनन्त होता है। चित्र में दर्शाए अनुसार अनन्त ज्ञानी अनन्तदर्शनी अर्थात् केवल - ज्ञानी - केवलदर्शनी आत्मा लोक और अनन्त अलोक को भी देखती और जानती है। ज्ञान से जानना और दर्शन से देखना होता है । जानना और देखना यह क्रिया साथ में होती है, अतः ज्ञान और दर्शन साथ में रहते हैं । अनन्त अलोक में क्या है और क्या नहीं है यह केवलज्ञानी - केवलदर्शनी सर्वज्ञ आत्मा देखकर ही बताती है । अतः उन्होंने देखा जाना फिर जगत को बताया । सर्वज्ञ विभु ने बताया कि अनन्त अलोकाकाश में सिर्फ आकाश ही आकाश है, परन्तु आकाश के सिवाय अन्य धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीव या दुद्गल आदि कोई द्रव्य नहीं है । आकाश है और अ य द्रव्य नहीं है - यह भी अनन्त ज्ञानी - अन त दर्शनी आत्मा ने देखकर ही बताया है । तथा चौदह राजलोक परिमित लोकाकाश के क्षेत्र • में भी आकाश वही है जो अलोक में है, और साथ में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय अनन्त जीव, एवं अनन्त पुद्गल पदार्थ नहीं है, यह सर्वज्ञ सर्वदर्शी ने देखकर और जानकर ही बताया है । समस्त लोक या अलोक को देखना या जानना यह इन्द्रियों से सम्भव नहीं है । यह तो सीधे आत्मा से ही देखना होता है । केवलज्ञानी "सर्वज्ञ" कहलाते हैं और केवलदर्शनी - ' सर्वदर्शी" कहलाते है । अनन्तज्ञानीअनन्तदर्शनी, केवलज्ञानी - केवलदर्शनी, सर्वज्ञ - सर्वदर्शी ये सभी शब्द एक दूसरे के पर्यायवाची शब्द हैं । केवलज्ञानी अर्थात् अनन्तज्ञानी सर्वज्ञ महापुरुष, इन्द्रियों के बिना सीधे आत्मा से जानते हैं । उसी तरह अनन्तदर्शनी - केवल दर्शनी - सर्वदर्शी आत्मा बिना इन्द्रियों के सीधे आत्मा से देखती है । अतः केवलज्ञानी - केवलदर्शनी
कर्म की गति न्यारी
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