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ठीक वैसा ही काम आभ्यंतर आवरण दर्शनावरणीय कर्म करता है । अर्थात् कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणु का बना हुआ पिंड दर्शनावरणीय कर्म आत्मा के दर्शन गुण पर छाकर आत्मा की देखने की शक्ति को कम करने का या ढकने का काम करता है अतः एक जीव जो दर्शनावरणीय कर्म के आवरण से दबा हुआ है, वह जो कुछ देखेगा, सीमित एवं मर्यादित देखेगा। अत: 'उसका दर्शन सीमित-मर्यादित कहलाएगा, जबकि दूसरा जीव जो दर्शनावरणीय कर्म के आवरण से सर्वथा रहित है उसका दर्शन अमर्यादित -असीमित-अपरिमित अनन्त दर्शन कहलाएगा, क्योंकि द्रष्टा आत्मा कर्मावरण से रहित है। उस समय वह आत्मा अपनी दर्शन शक्ति से स्वयं जो कुछ देखेगी वह अनन्त दर्शन रूप में देखेगी।
प्राता का गुण "अनन्त दर्शन" मूलभूत शुद्ध द्रव्य आत्मा जो सर्व कर्मावरण रहित है उसके गुण एवं शक्ति असीमित-अनन्त होते हैं । अलोकाकाश अनन्त है और लोकाकाश क्षेत्र सात हैं। लोकाकाश के बाहर जो अलोकाकाश अन्त रहित अनन्त है जिसकी कोई सीमा एवं अवधि नहीं है, ऐसे अनन्त अलोकाकाश के क्षेत्र में क्या है और क्या नहीं है, यह भी अनन्तदर्शनी आत्मा देखकर ही कहती है ।
અનન્તલોકા-અલકાકાશ મુવીક્વલ શાની જૂએ છે.
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कर्म की गति न्यारी