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अभिधान कोष के तृतीय मर्त्यकांड में दर्शन के चक्षु, देखना, नेत्र, नयन, दृष्टि, अम्बक, लोचन, दर्शन, आंख की तारा तथा कनीनिकादि कई अर्थ होते हैं ।
दर्शनं दर्पणे धर्मोपलब्ध्योर्बुद्धि-शास्त्रयोः । स्वप्न लोचनयोश्चापि, दशनं वर्म -दंशयोः ॥
अनेकार्थ संग्रह ग्रंथ में पूज्य हेमचन्द्राचार्यजी ने दर्शन के विविध अर्थ बताए हैं ।
(१) “दृशं – प्रेक्षणे” – से दर्शन, To Seei ¿ (२) दर्शन = देखना | (३) दर्शन = दर्शन शास्त्र । ( ४ ) दर्शन = तत्त्वज्ञान - PHILOSOPHY । (५) दर्शन : दृश्य - VISION | (६) दर्शन = परमात्म दर्शन (क्रिया अर्थक ) | ( ७ ) दर्शन: श्रद्धा । (८) दर्शन = दर्पण । (९) दर्शन = दृष्टि, घाट, उपदेश, स्वप्न, धर्म सम्बन्धी ज्ञान, बुद्धि-अक्कल, सांख्य, न्याय-वैशेणिक - बौद्ध-जैन- चार्वाक आदि “ षड्दर्शन", मन, दर्शन शास्त्र तथा सम्यग् दर्शन श्रद्धा आदि अनेकार्थों में " दर्शन शब्द है ।
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इस तरह भिन्न-भिन्न अनेक अर्थो में दर्शन शब्द का प्रयोग होता हैं ।
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दर्शन - सोमित और अनन्त
देखने की क्रिया का कार्य दर्शन प्रत्येक कर्त्ता के ऊपर अवलम्बित रहता है । अर्थात् कर्ता आत्मा को देखने की शक्ति कितनी विकसित हुई है उसके आधार पर कम ज्यादा देखेगा । यदि दर्शन की शक्ति कर्मों के आवरण से कुण्ठित है तो वह कम देखेगा, और यदि दर्शन की शक्ति कर्मावरण रहित है तो वह अनन्त एवं असीमित देखेगा । दर्शन क्रिया के कर्त्ता जीव दो प्रकार के हैं - १. कर्मावरणग्रस्त जीव = सकर्मी जीव, २. कर्मावरण रहित जीव = निष्कर्मी जीव । उदाहरण के लिए समझिए कि - हम आकाश में चन्द्र या सूर्य देख रहे हैं । चन्द्र और हमारी दृष्टि के बीच के दृष्टिपथ में यदि कोई आवरण आता है तो चन्द्र दिखाई नहीं देगा । यदि आवरण हल्का - पतला सा होगा तो एवं अस्पष्ट दिखाई देगा | आवरण चन्द्र पर भी हो सकता है, और दृष्टिपथ के बीच में भी हो सकता है तथा आंखों में मोतीबिन्दु की तरह भी हो सकता है ये हुए बाह्यावरण | जैसे बाह्यावरण के कारण भी वस्तु स्पष्ट नहीं दिखाई देती, ठीक वैसे ही आन्तरिक या आभ्यांतरिक आवरण भी होता है । वह भी बाधक बनता है । बाह्यावरण बादल कपडा या मोतीबिन्दु आदि होता है, वैसे ही आभ्यंतर आवरण आत्मा के दर्शन गुण पर लगे हुए दर्शनावरणीय कर्म का होता है । जैसा काम वाह्यावरण करते हैं
चन्द्र धुंधला
कर्म की गति न्यारी
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