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ही आत्मज्ञानी-आत्मद्रष्टा कहलाते हैं । अन्य सभी तद्-तद् कर्मावरणग्रस्त छद्मस्थ जीव आत्मज्ञाता-आत्मद्रष्टा नहीं कहलाते । वे इन्द्रियों से जानने एवं देखने वाले इन्द्रियजन्य-ज्ञानज्ञाता, इन्द्रिय जन्यदर्शन-द्रष्टा कहलाते हैं।
इन्द्रियों से जानना व देखना
दर्शन
इन्द्रियों से दर्शन
सीधे आत्मा से दर्शन
चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन अवधिदर्शन केवलदर्शन
ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीयादि कर्मों से ग्रस्त छद्मस्थ संसारी आत्मा इन्द्रियों के द्वारा ही जानने-देखने आदि का व्यवहार करती है, क्योंकि छद्मस्थ संसारी आत्मा के अनन्त ज्ञान-दर्शनादि गुण तथा प्रकार के ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय आदि कर्मों के भार से दब चुके, ढक चुके हैं । ऐसी संसारी आत्मा संसार में शरीर के बिना तो रह ही नहीं सकती है । उसे किसी न किसी शरीर में ही रहना पड़ता है। इसलिए संसारी आत्मा देहधारी कहलाती है। मकान के खिड़की-दरवाजे की तरह शरीर में इन्द्रियां हैं जो खिड़की-दरवाजे का काम करती हैं। मकान में जैसे खिड़की-दरवाजों से हवा-प्रकाशादि आता है, वैसे ही देहधारी आत्मा में शरीर के खिड़की-दरवाजे रूप इन्द्रियों से ज्ञेय-दृश्य आत्मा में (अन्दर) आते हैं। इन्द्रियां ५ (पांच) हैं। पांचों इन्द्रियों का काम आत्मा तक ज्ञेयमान-दृश्यमान पदार्थों का ज्ञानदर्शन पहुँचाना है । कर्मावरण के कारण आत्मा का स्वयं का पूर्ण ज्ञाता-द्रष्टाभाव दबा हुआ (आच्छन्न) होने के कारण आत्मा इन्द्रियों की सीमित शक्ति से सीमित ही जानने-देखने का काम करती है । अतः ज्ञाता-द्रष्टा स्वभाव होते हुए भी, आत्मा ज्ञान-दर्शन पूर्ण न करते हुए, इन्द्रियों से अपूर्ण एवं अल्प ज्ञान-दर्शन प्राप्त करती है ।
इन्द्रियां
इन्दिया
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अतिन्द्रिय (अनीन्द्रिय)
| (१) (२) स्पर्शेन्द्रिय रसनेन्द्रिय
मन । (३) । (४) । (५) .. नाणेन्द्रिय चक्षुइन्द्रिय कर्णेन्द्रिय
कर्म की गति न्यारी