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संसार में मूलभूत दो पदार्थ हैं - १, जीव २. अजीव । संसार में जीव अजीव संयोगी द्रव्य है, अर्थात् एक दूसरे के साथ एक दूसरे का संयोग वियोग होता रहता है । जीव अजीव का संयोग-वियोग ही संसार है । अजीव में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, श्राकाश एवं काल के अतिरिक्त पांचवा पुद्गल पदार्थ भी है । पुद्गल की पर्यायें अनन्त है। पुद्गल में जो वर्ण, गंध, रस, स्पर्शादि का स्वरूप पड़ा हुआ है उसे ग्रहण करने के लिए आत्मा अपनी इन्द्रियां उस उस विषय वाली बनाती है। पुद्गल पदार्थ के वर्ण अर्थात् रूप-रंग को देखने के लिए जीव ने चक्षु इन्द्रिय बनाई । चक्षु इन्द्रिय से जीव लाल, नीला, पीला, हरा आदि रूप रंग देखता है । पुद्गल पदार्थ में रही. हुई सुगन्ध - दुर्गंध को जीव ने घ्राणेन्द्रिय (नाक) से ग्रहण की । पुद्गल पदार्थ में रहे हुए तिक्त, कटु, खारा, मीठा, खट्टा आदि रस ग्रहण करने के लिए जीव ने रसनेन्द्रिय - जिह्वा इन्द्रिय का उपयोग किया है। पुद्गल पदार्थ के हल्का भारी, मृदु-कर्कश, ठण्डा-गरम तथा कोमल-कठोर (स्निग्ध- रूक्ष ) आदि स्पर्शो को ग्रहण करने के लिए जीव ने स्पर्शेन्द्रिय- चमड़ी बनाई । ध्वनि एवं शब्द को ग्रहण करने के लिए जीव ने श्रवणेन्द्रिय कान बनाया । इस तरह जीव ने पुद्गल पदार्थ के वर्ण, गंध रस, स्पर्शादि स्वरूप को अपने ज्ञान का विषय बनाने के लिए इन्द्रियों का उपयोग किया । आत्मा तक ज्ञय पदार्थ का ज्ञान पहुँचाने के लिए safer की तरह काम किया । अतः ये इन्द्रियां ज्ञानेन्द्रियां कहलाती हैं । ज्ञाताद्रष्टास्वभाववान् स्वयं आत्मा होते हुए भी स्वगुण घातक कर्म से दबी हुई होने के कारण आत्मा ने ज्ञान प्राप्ति के कार्य में इन्द्रियों की सहायता ली । अतः ज्ञाता-द्रष्टा आत्मा ज्ञान-दर्शन का अर्थात् जानने, देखने का काम इन्द्रियों की मदद से करने लगी । इन्द्रियां जानने-देखने का काम कराती हैं, क्योंकि सभी ज्ञान व्यवहारी है ।
कर्मशास्त्रकारों ने ज्ञान-दर्शन के कार्य के आधार पर इन्द्रियों के दो विभाग किए है । १. चक्षु दर्शन, २. अचक्षु दर्शन ।
चक्षु दर्शन
आंख से देखने का कार्य
1 चक्षु इन्द्रिय दर्शन
स्पर्शेन्द्रिय दर्शन
कर्म की गति न्यारी
दर्शन
I
अचक्षु दर्शन
रसनेन्द्रिय दर्शन घ्राणेन्द्रिय दर्शन
श्रवणेन्द्रिय दर्शन
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