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जिमजिम क्षय उपशम प्रावरणां, तिमगुण आदि भोवेजी। श्री शुभवीर वचनरस लब्धे, संभिन्न स्रोत जण वे ॥
परमात्मा के गुणों का जो अत्यन्त आदर भाव से सन्मान करे, तथा परमात्मा की “जिनवाणी" प्रवचन का आदर भाव से श्रवण करे; वह प्राणी द्रव्य तथा भाव से बहिरातम भाव को कम या दूर करके जन्मांतर में इशारे में समझ जाए ऐसी चक्षु, कान मनादि इन्द्रियाँ प्राप्त करता है। जो प्राणी प्रभु के गुणगान गाता है, प्रभु का ध्यान धरता है, तथा आगम का शुद्ध प्रतिपादन करता है वह जीव जन्म जन्मांतर में भी मूर्ख, गूगा बहरा आदि नहीं बनता है, तथा भव कूप में अर्थात् संसार परिभ्रमण चक्र में नहीं गिरता है । जो प्राणी पंचपरमेष्ठी भगवन्तों को मस्तक झुकाता है अर्थात नमता है, तथा भाव पूर्वक तीर्थ यात्रा आदि करता है, और मुनि भगवन्तों की सेवा, वैयावच्च, शुश्रूषा तथा विनयादि करता है वह भरत चक्रवर्ती की तरह अनेक प्रकार के सुख प्राप्त करता है । (भरत चक्रवर्ती ने पूर्व जन्म में पांच सौ मुनिराजों की विनय-वैयावच्च-सेवा आदि करके चक्रवर्तीपना प्राप्त किया था) जैसे-जैसे अचक्षुदर्शनावरणी आदि दर्शनावरणीय कर्म की प्रकृति का क्षयोपशम बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे आत्मा के दर्शनगुण का अविर्भाव होता है। श्री शुभवीर महाराज कहते हैं कि परमात्मा के वचन रूप रस में निमग्न-लीन होने से श्रोतादि लब्धियां प्राप्त होती हैं जिससे जीव को सम्पूर्ण शरीर से पांचो इन्द्रियों का बोध होता है ।
निद्रा दुग दल छेदवा, करवा निर्मल जात । अक्षत निर्मल पूजना, पूजो श्री जगतात ।।
दोनों निद्रा के कर्म पुद्गलों का छेदन करने के लिए, तथा आत्म भाव को निर्भल करने के लिए, निर्मल अक्षत से जगत के तातरूप प्रभु की अक्षत पूजा करो।
विविध फले प्रभु पूजतां, फल प्रकटे निर्वाण । दर्शनावरण विलय हुवे, विघटे बंधनां ठाण ।।
विविध प्रकारों के फलों से प्रभु की फल पूजा करते हुए निर्वाण रूप फल प्राप्त हो, और दर्शनावरण कर्म का विलय हो, तथा सभी बंधस्थान नष्ट हों ऐसी भावना रखी है।
कर्म की गति न्यारी