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इस प्रकार वीतराग प्रभु के धर्म की उपासना विविध रूप से करते हुए हम अनेक तरीकों से दर्शनावरणीय आदि कर्मों का क्षय-उपशम तथा क्षयोपशम आदि कर सकते हैं । इन कर्मों के क्षय से ही अनंतदर्शनादि गुणों का आविभाव होता है। हमारे जैसे संसारी छद्मस्थ जीवों को कर्म क्षय के शुभमाव निर्माण हों, और "सव्व पावप्पणासणो' सर्व पाप कर्मों के नाश की दिशा में अग्रसर होते हुए हम आत्मा की शुद्ध-विशुद्ध-सच्चिदानन्द-पूर्णावस्था को प्राप्त करें, पूर्णदर्शनी-अनन्तदर्शनी बनें इसी शुभ मनोकामना के साथ
सर्व समाप्तम् ।
॥ इति शम् दिशतु ॥