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________________ वीरविजयजी महाराज ने पूजा की ढाल में ऐसे दूरंत दर्शनावरणीय कर्म को कैसे खपायें, कैसे इसका नाश करें, इस विषय में काफी लिखा है। कहते है कि अब पूर्ण रूप से दर्शन प्राप्त करने के लिए, हे जिनेश्वर भगवंत ! हम पूर्ण मन से आपकी भक्ति करें जिससे जैसे जलकांत मणि से जल दूर हो जाता है, वैसे ही सर्वदर्शनी भगवंत के दर्शन से मेरे दर्शन का आचरण दूर हो जाएगा--- दर्शनावरण निवारण कारण अरिहाने अभिषेक रे, नमो रे नमो दर्शनदायक ने इस दर्शनावरणीय कर्म निवारण के लिए मैं अरिहंत परमात्मा का अभिषेक करू, और ऐसे दर्शनदायक प्रभु को मैं बारबार नमु-नमस्कार करता हूँ। उपदेशक नव तत्वना, प्रभु अंग उदार । नव तिलके उत्तर नव-पगड़ टालणहार ॥ श्री जिनेश्वर भगवंत ! नवतत्त्वों के उपदेशक है । अतः प्रभु के नौ अंगों पर पूजा करते हुए नौ तिलक करने से दर्शनावरणीय कर्म की नौ प्रकार की उत्तर प्रकृतियां नष्ट होती है । अत: प्रभु पूजा-भक्ति कर्म क्षयकारक हैं । जयणा वंत गुरु आगम पूजो, जिनपडिमा जयकारी। . . हे भव्य प्राणियों ! आप जयणा सहित जयवंती जिन प्रतिमा, सद्गुरु और जिन आगम की अच्छी तरह भावपूर्ण पूजा-भक्ति आदि करो जिससे कर्मबंध टूटे, यह कर्म क्षय करने का उत्तम उपाय है। गुण बहुमान जिनागम वाणी, काने धरी बहुमाने जी । द्रव भाव बहिरातम टाली, पर भव सम्जे साने ॥ प्रभु गुण गावे ध्यान मल्हावे, आगम शुद्ध प्ररूपेजी । मूरख मूगा न लहे पर भव, न पड़े वली भवकूप ।। परमेष्ठी ने शिश नमावे, फरसे तीरथ भावेजी । विनय वैयावच्चादिक करतां, भरतेश्वर सुख पावे ॥ कर्म की गति न्यारी
SR No.002480
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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