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अल्प तेज नयनातप देखी, जुए आडो कर धारी ।
जाण पूरबभव कुमतिनी, हजीय न टेव विसारी ॥ जो मूर्ख, अज्ञानी, गंवार, दर्शनावरणीय कर्म बांधता है वह और वैसे प्राणी चक्षुदर्शनावरणीय आदि कर्म के उदय से जन्मांतर में काणे, रात तथा दिन के अन्धे, जन्मजात अन्धे, दुःखी तथा दीन स्थिति वाले बनते हैं, अखें बहुत कमजोर होती है, दृष्टि तेज नहीं होती है, घूप में आंखों के सामने हाथ रखकर देखना पड़ता है । इससे ऐसा लगता है कि कुमति जीव पूर्वभव की आदतों को अभी भी नहीं भूले हैं। उसी तरह अचक्षुदर्शनावरणीय कर्म के उदय के कारण जीवों को चक्षु अतिरिक्त अन्य चार इन्द्रियां मनादि न्यूनाधिक प्राप्त होते हैं । तथा जो इन्द्रियां प्राप्त होती हैं उनमें भी पूर्णता न रहकर विकलता रहती है। अतः वे रोग जन्य स्थितियां पैदा करती है । एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय के जीवों का चक्षुदर्शनावरणीय कर्म इतना गाढ होता है कि उन्हें चक्षु सर्वथा मिलती ही नहीं है । और चउरिन्द्रिय पंचेन्द्रिय को चक्षुदर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशमभाव मे जो इन्द्रियां प्राप्त होती है उसमें भी यदि क्षयोपशम प्रमाण में कम हो तो मिली हुई इन्द्रियां तेजहीन, कमजोर, विकल, तथा अशक्त प्राप्त होती हैं। अवधिदर्शनावरणीय आदि कर्म के उदय में भी तथा प्रकार के क्षेत्रादि तक रूपी पुद्गल पदार्थों के देखने की शुद्धि नहीं रहती है। अवधिदर्शनावरणीय एवं केवलदर्शनावरणीय कर्म के सम्पूर्ण रूप से उदय में रहने से आत्मा का अवधिदर्शन एवं केवलदर्शनगुण सर्वथा ढका हुआ. दबा हुआ रहता है । केवलदर्शनावरणीय कर्म प्रकृति वैसे भी सर्वघाती होने से सर्वथा उस गुण को ढककर रहती है । निद्राओं के उदय के कारण जीवों को अल्पादिक निद्रा-तंद्रा आदि उदय में रहती है । आलस्य-प्रमादादि से जीव ग्रस्त रहते हैं। निद्रा आदि के रोग के कारण पीड़ित रहते हैं । इस प्रकार दर्शनावरणीय कर्म के उदय के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार की रोगादि की स्थिति बनती है ।
दर्शनावरणीय कर्म क्षय के उपायपूरण दर्शन पामवा, भजिए भवी भगवंत । दूर करे आवरणने, जिम जल थी जलकांत ॥
कर्म की गति न्यारी
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