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४२ वर्ष के चारित्र पर्याय में मात्र छद्मस्थावस्था में दो घड़ी की नींद ही रही और शेष निद्रा के त्याग का काल रहा । यह कितना उच्च कक्षा का आदर्श है ? हमें भी इसमें से बाँध लेना चाहिये ।
दर्शनावरणीय कर्मजन्य रोगादि स्थिति
पूर्व में बताए गए दर्शनावरणीय कर्मबंध के आश्रव द्वारों से जीव जिस तरह कर्म बांधता है, उसी तरह वे कर्म उदय में भी आते हैं । कर्मशास्त्र का नियम ही है कि “जैसा करेंगे वैसा ही भरेंगे" जैसे पाप किये हैं वैसे ही फल भुगतने पड़ते हैं। जैसा और जितना परीक्षा में लिखा हो वैसा ही फल और उतने ही नम्बर मिलते है । पास-फेल का परिणाम उसके आधार पर ही आता है । उसी तरह सुख दुःख का आधार शुभाशुभ कर्मों पर ही है । किसी से उधार लिया हुआ धन समय आने पर चुकाना ही पड़ता है। ठीक उसी तरह बांधे हुए कर्म समय पर भुगतने ही पड़ते
। अनेक तरीकों से बांधा हुआ दर्शनावरणीय कर्म उदय में आने पर अनेक तरीकों से दुःखी होकर भुगतना पड़ता है । यह कर्म किस-किस रूप से उदय में आता है ? . तथा कैसी स्थिति निर्माण करता है, इसका चित्र पूज्य वीरविजयजी महाराज ने पूजा की ढाल में दर्शाया है ।
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ए आवरण बले करी, न लह्य दर्शन नाथ । नैगम दर्शने भटकीओ, पाणी व्लोव्यु हाथ ॥
प्रभु
! दर्शनावरणीय कर्म" के आवरण के कारण मैं आपका दर्शन प्राप्त
नहीं कर सका । नैगमनयादि रूप एकान्त दर्शनों में मैं भटकता ही रहा, परन्तु आपका सही दर्शन नहीं पा सका । वास्तव में इस संसार में हाथों से पानी मंथन करने का काम किया जिसमें कुछ भी नहीं मिला ।
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चक्षुदर्शनावरण कर्म ते, बांधे मूढ गमारी ।
काणा निशदिन जात्यंधा यणु, दुखिया दीन अवतारी ।. दर्शनावरण प्रथम उदये थी, परभव एह विचारी ।
कर्म की गति न्यारी