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कोई अनिवार्यता नहीं रहती है । आंखें खोलकर न भी देखें तो भी चलता है, क्योंकि सर्वावरण रहित केवलज्ञान-दर्शन पूर्ण-सम्पूर्ण रूप से प्रकट हो चुका है । अत: बिना चक्षुआदि इन्द्रियों के सभी पदार्थ, सारा जगत, लोक अलोक आदि स्पष्ट दिखाई देता है । फिर भी व्यवहार से जो इन्द्रियां हैं उनकी क्रिया चलती रहती हैं ।
भगवान महावीर की नाममात्र नोंद-
चरम तीर्थंकर श्रीमहावीरस्वामी भगवान का जीवन चरित्र जो शास्त्रों में उपलब्ध है, उसमें महापुरुषों ने एक विशेष बात ऐसी लिखी है कि भगवान महावीरस्वामी ने ३० वर्ष की आयु में दीक्षा ली, एवं १२ । । वर्ष तक छमस्थ अवस्था के काल में अग्रतम घोर तपश्चर्या की है । उस काल में मात्र दो घड़ी अर्थात ४८ मिनिट ही नीद ली है । १ ।। वर्ष के काल में सिर्फ कुल ३४९ दिन ही आहार लेने के हु है, और शेष दिन उपवासादि की तपश्चर्या के हुए है | १२|| वर्ष की तपश्चर्या के काल में उनकी ध्यान साधना एवं विहार आदि भी उग्रतम रहे हैं । शास्त्रकार महर्षि लिखते है कि "भूति न ठाया हो जिननी” भगवान १२ । । वर्ष के काल में पालखी लगाकर जमीन पर बैठे तक नहीं, एवं नींद भी नहीं ली। एक बार खड़ेखड़े प्रमादवश मात्र दो घड़ी = ४८ मिनट नींद आ गई । वह भी यक्ष के उपसर्ग के बाद थकने के कारण ही । यह भगवान के जीवन की अन्तिम नींद थी । अपने छद्मस्थ काल में प्रभु इतने ज्यादा सजग एवं सावधान रहे कि निद्रा कर्म के अधीन भी नहीं हुए । ऊपर से निद्रा के कारणभूत दर्शनावरणीय आदि कर्मों को क्षय करने की साधना में सतत लगे रहे । इस तरह जब दर्शनावरणीय कर्म (नींद) का उदय था तब भी प्रभु ने सावधान रहकर उसे हटाया है, और अन्त में जाकर जब चारों घनघती कर्मों का क्षय कर दिया तथा उसके परिणामस्वरूप जब केवलज्ञानकेवलदर्शन एवं वीतरागता आदि प्राप्त कर लिए तब नींद का प्रश्न ही नहीं रहा क्योंकि दर्शनावरणीय के सर्वथा सम्पूर्ण क्षय हो जाने के बाद तेरहवें गुणास्थानक पर नींद कभी भी नहीं आती है । इस तरह ७२ वर्ष के आयुष्य में से तीस वर्ष गृहस्थाश्रम के काल में जितनी नींद ली हो वही उनके जीवन की नींद थी । शेष
कर्म की गति न्यारी
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