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इस तरह तीन देशघाती कर्म प्रकृतियाँ है जो आत्मगुण का सर्वांश-सर्वथा घात नहीं करती हैं । परन्तु केवलदर्शनावरणीय तथा ५ निद्रा ये ६ ही सर्व घाती प्रकृतियाँ हैं जो आत्मा के दर्शनगुण का सर्वथा-सर्वांशिक घात करती हैं ।
चारों ही दर्शन की चार कर्म प्रकृतियां चक्षुदर्शनावरणीय आदि सभी धुवोदयी है तथा ५ निद्रा आदि अध्र वोदयी प्रकृतियाँ हैं ।
बन्धोदय सत्ता ध्रुवा, पयडी नव तिम पंच । निद्रा अघ्र वोदयी कही, सर्वघाती पण पंच ॥
दर्शनावरणीय कर्म की नौ ही कर्म प्रकृतियाँ ध्रुवबंधी, तथा घ्र व सत्तावाली हैं। यह बंध, सत्ता, उदय एवं घाती आदि का विचार किया गया है, जिससे यह पता चलता है कि कौनसी कर्म प्रकृति कैसी है।
गुणस्थानकों में बंध-उदय-सत्तादि--
चक्षुदर्शनावरणीयादि चार दर्शन चतुष्क की ४ कर्म प्रकृतियाँ सूक्ष्मसंपरायनामक दशवें गुणस्थानक पर बध में से जाती हैं। स्त्यानद्धित्रिक-(थीद्धि-त्रिक) का पहले मिथ्यात्व गुणस्थानक पर ही बंध होता है। बाद में आगे नहीं होता है । निद्रा और प्रचलाद्विक आठवें ‘अपूर्वकरण गुणस्थानक पर बंध में से चली जाती हैं । तथा चक्षुदर्शनावरणीयादि चारों प्रकृतियाँ उदय उदीरणा और सत्ता में से १२ क्षीणमोह गुणस्थानक पर चली जाती है । तेरहवें सहयोगी केवली गुणस्थानक पर आते मोहनीय के क्षय के बाद ज्ञानावरणीय, अन्तराय के साथ दर्शनावरणीय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाता है । अतः सर्वज्ञ केवली वीतराग भगवान केवलदर्शनी सर्वदर्शी तथ। अनिद्रालुसर्वथा निद्रारहित बन जाते हैं। ऐसे केवलज्ञानी-केवलदर्शनी, सर्वश-सर्वदर्शी प्रभु को आयुष्य की अन्तिम समाप्ति तक के शेष जीवन में नाममात्र भी निद्रा लेने की आवश्यकता नहीं रहती है । अत: केवली केवलज्ञान-दर्शन की प्राप्ति के बाद बिल्कुल नींद नहीं लेते हैं। उसी तरह इन्द्रियों से देखना-जानना आदि व्यवहार करने की भी
कर्म की गति न्यारी