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(३) उपधात-गुर्वादिक का घात करना, अपलाप करना, या प्रशस्त ज्ञान-ज्ञानी विगेरे में दोष न होते हुए भी दोष लगाना यह उपघात है। अर्थात् शुद्ध प्ररूपणा में भी अपनी विपरीत मति से दोष लगाना यह अपघात कहलाता है । ज्ञानी के वचनों को असत्य मानना, ज्ञानी को सहायता न करना, ज्ञान के साधनों का नाश करना आदि उपघात प्रवृत्ति है।
(४) प्रद्वेष-ज्ञानी, विद्वान-गुर्वादिक महापुरुषों पर द्वेष बुद्धि धारण करना, द्वेष वृत्ति से व्यवहार करना, तत्त्वज्ञान एवं प्रवचनादि में अरुचि दिखाकर मह बिगाड़ना तथा अभ्यास आदि से ऊब जाना, एवं किसी ज्ञानी विद्वान की प्रशंसा आदि सहन न होने पर उनके प्रति द्वेष बुद्धि रखना यह प्रदेषबृत्ति है। .
(५) अन्तराय-किसी को पढ़ने में विघ्न करना, पढ़ने न देना, ज्ञानोपकरण आदि के विषय में भी विघ्न करना, पढते हुए को उठाकर अन्य काम में लगाना, किसी के स्वाध्ययादि में विक्षेप डालना, पवचनादि में विघ्न करना आदि प्रवृत्ति अन्तराय कहलाती है।
(६)मात्सर्य-अर्थात् ईर्ष्या रखना। पढ़ने आए हुए के प्रति अरे ! यह पढ़कर मेरे से भी ज्यादा होशियार हो जाएगा, मेरे से आगे बढ़ जायेगा, ऐसी ईर्ष्या तथा ज्ञान प्रदान न करने की कलुषितवृत्ति आदि को तथा ज्ञान, ज्ञानी एवं ज्ञानोपकरण आदि के प्रति ईर्ष्यावृत्ति को मात्सर्य भाव कहते हैं । इस तरह ज्ञान, ज्ञानी एवं ज्ञानोपकरण एवं दर्शनी, दर्शनोपकरण आदि की आशातना करना, अपलाप करके अवर्णवादादि-निन्दा करना, अपमान करना, ज्ञानी के प्रतिकूल वर्तन, ज्ञानी के वचन पर श्रद्धा न रखना, ज्ञानादि का अभिमान करना, अकाल में अध्ययन करना, अभ्यास में प्रमाद करना, शक्ति होते हुए भी न पढ़ना, अनादर करना, मिथ्या उपदेश देना, शास्त्र-सूत्र विरुद्ध बोलना, अर्थोपार्जन हेतु ज्ञान बेचना आदि मुख्य रूप से ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय दोनों कर्म बांधने के मुख्य आश्रव द्वार-या बन्ध हेतु है।
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कर्म की गति न्यारी