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शुभाशुभ प्रवृत्ति करता है, वैसे शुभ-अशुभ कर्मों का बंध होता है । बिना किसी राग-द्वेषदि की प्रवृत्ति के कोई कर्म नहीं बंधता है । प्रस्तुत प्रकरण में दर्शनावरणीय कर्म का विचार चल रहा है । अतः यहां दर्शनावरणीय कर्म कैसी पाप प्रवृत्ति से बंधता है, क्या करने से निर्माण होता है, यह जानना बहुत जरुरी है, क्योंकि बिना हम उनका क्षा एवं संवर भी कैसे कर सकेंगे ? जिसका जो कारण होता है, उस कारण का नाश करने से कार्य भी नष्ट हो जाता है । जैसे आग को बुझाने से धुआं भी नष्ट हो जाता है, बांध के द्वार बन्द कर देने से पानी का आगमन भी बन्द हो जाता है, वैसे ही कर्म के आगमन रूप जो आश्रवद्वार के हेतु है, उनको यदि बंद किया जाय तो कर्मों का नया निर्माण होना भी बन्द हो जाता है । कर्मशास्त्र ग्रन्थ में दर्शनावरणीय कर्म बन्ध के आश्रव निम्न प्रकार बताए गए हैं।
पडिणी अत्तण निन्हव-उवद्यापओसअंतराएणं । अच्चासायणयाए, आवरणदुर्ग जिओ जयइ ॥ [कर्मग्रन्थ - १]
प्रशेष- ह्नि - मात्सर्याऽन्तरायाऽऽसादनोपद्याता ज्ञानदर्शनावरणयोः । [६-११]
१. प्रत्यनीक, २. निह्नव, ३ उपधात ४. प्रद्वेष, तथा ५ अन्तराय, ६, मात्सर्य आदि मुख्य रूप से ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय दोनों कर्म बन्ध के आश्रव द्वार हैं ।
( १ ) प्रत्यनीकत्व - शत्रुता की वृत्ति से या वैमनस्य भाव की तरह सर्वथा अनिष्ट आचरण करने वाला प्रत्यनिक कहलाता है अर्थात् ज्ञानी महात्माओं से प्रतिकूल आचरण करता है ।
( २ ) निह्नव अपलाप करना - छिपाना । जिनके पास अभ्यास करके पढ़ा हो उनका नाम व्यवहार में छिपाना कि मैं कहां इनके पास पढ़ा हूँ ? किसी अन्य को ही अपना गुरु बताना, यह निह्नवपना है । अथवा जिज्ञासा भाव से पूछने-समझने आए हुए को भी कहना कि "मैं कुछ नहीं जानता हूँ", "मुझे मालुम नहीं है ।" इत्यादि वृत्ति विपना है ।
कर्म की गति न्य
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