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________________ सात व्यसन छुड़वाये । इस प्रसंग पर कणबी जाति का वह मनुष्य भी प्रभावित होकर मांसहार आदि छोड़कर शुद्ध शाकाहारी बना । साधु सन्तों के सत्संगसमागम में ज्यादा रहकर उस मनुष्य ने संसार का त्याग कर दिया, और सर्वपापों को छोड़कर जैन दीक्षा अंगीकार करके साधु बन गया । साधुत्व का पालन करते हुए साधुओं के साथ यात्रा विहारादि करता रहा । . एक बार ऐसा हुआ कि जंगल जाने के हेतु वे बाहर गए। मार्ग में कुछ मांसलुब्ध कसाई लोगों को एक भैंस के पाड़े को काटते हुए देखा । यह दृश्य देखते ही उस साधु के मन में भी पूर्वकाल के मांस खाने के संस्कार स्मृतिपटल पर उपस्थित हो गए और मांस खाने की तीव्र इच्छा हो गई। वे अपनी साधुता को याद करके वहां से हटकर जल्दी ही उपाश्रय में आ गए, परन्तु इच्छा का जोर बढता ही गया । रात्रि को उसी विचार में सो गए। उनको थीणाद्धि निद्रा नामक दर्शनावरणीय कर्म का भारी उदय उसी रात को हुआ। रात्रि में उठकर निद्रावस्था में ही गांव के बाहर गये । गाँव बाहर भैसों के झुण्ड में जाकर, भैंस के एक पाड़े को मार डाला और उसका मांस खाने बैठ गये । खूब मांस खाकर, कुछ साथ में लेकर उपाश्रय में आकर सो गए। रात्रि बीत गई, प्रातःकाल में अन्य सभी साधु उठे, वह भी उठा, उसके हाथ और कपड़े खून से लथपथ देखकर अन्य साधुओं ने उससे पूछा अरे ! तुमने यह क्या किया है ? साधु होकर ऐसा किया जाता है ? उसने साफ ना कह दिया, मैंने कुछ भी नहीं किया है, और मैं कुछ भी नहीं जानता हूँ । परन्तु साथ लिया हुआ मांस जो उपाश्रय में छिपाया था, वह भी अन्य साधुओं ने ढढ निकाला, भऔर उसे अपराधी घोषित किया । ज्ञानी गुरुभगवंत ने ऐसा जानकर कि यह थीणाद्धि-निद्रा नामक दर्शनावरणीय का दोष है, उसे साधुपने से निकाल दिया। (२) मोदक भक्षक कुछ साधुगण विहार करते हुए एक गाँव में आये । भिक्षा के लिए एक साधु गृहस्थों के घर में गया। उस गृहस्थ के घर में एक बड़े थाल में अच्छे सुन्दर लड्डू रखे हुए थे। कई लड्डू होने पर भी उस गृहस्थ ने एक भी लड्डू मुनि को भिक्षा में नहीं दिया । उस साधु की लड्डू खाने की तीव्र आसक्ति थी । उपाश्रय में आकर दिनभर लड्डू खाने का ही विचार करता रहा। इसी चिन्ता में रात्रि में सो गया । थीणद्धि निद्रा नामक दर्शनावरणीय कम के भारी उदय से वह साधु मध्यरात्रि में उठकर उस लड्डू वाले गृहस्थ के घर गया । द्वार तोड़कर, घर में घुसकर उसने खूब लड्डू खाये । शेष बचे हुए लड्डू अपने पात्र में लेकर उपाश्रय आकर पुनः सो गया । कर्म की गति न्यारी ४९
SR No.002480
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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