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प्रातःकाल सभी साधु उठे । लड्डू खाने वाला साधु भी उठा, पर मानों उसे कुछ भी याद नहीं हो इस तरह वह अपनी नित्य क्रिया करने लगा। अपने गुरु को जाकर कहा कि मैंने आज ऐसा स्वप्न देखा है, परन्तु अन्य साधुगण वस्त्र-पात्र आदि की प्रतिलेखन क्रिया करने लगे, तब एक पात्र में खूब लड्डू देखे । सबके बीच यह भारी आश्चर्य प्रकट हुआ, काफी पूछपरख की, परन्तु कोई सत्य प्रकट नहीं हुआ । आखिर गुरु ने उसके स्वप्न के आधार पर थीणद्धि निद्रा नामक दर्शनावरणीय कर्म का भारी उदय समझकर उसे दीक्षा से निकाल दिया ।
(३) हाथी मारक
साधुमंडलीमा रहे रे, एक लघु अणगार; थोर्णाद्ध निद्रावशे रे, हणियो हस्तीमहंत; सूतो भर निद्रावशे रे, भूतलीये दोय दंत ।। अंग अशुचि शिष्यनु रे, संशय भरियो साध; ज्ञानी वयणे काढीयो रे, हंसवनेथी व्याध ॥
एक बार की बात है कि एक छोटे साधु को रास्ते में एक हाथी ने बहुत परेशान किया । घबराकर साधु किसी तरह जान छुड़ाकर भागकर उपाश्रय में आ गए । दिनभर उनमें हाथी के प्रति बड़ा भारी क्रोध चलता रहा। इसी क्रोध के विचार में रात को सो गये। थीणद्धिनिद्रा नामक दर्शनावरणीय कर्म के भारी उदय से वह साधु उठकर नगर के बन्द द्वार तोड़कर गांव के बाहर उस हाथी के पास गये । वज्रऋषभनाराच नामक प्रथम संघयण वाले उन्होंने थीणद्धि निद्रा के उदय में अर्ध चक्रवर्ती अर्थात् तीन खण्ड के मालिक वासुदेव के अर्ध बल जितनी शक्ति से उस हाथी के दोनों दांत खींचकर निकाल डाले, और दांतों से ही प्रहारकर हाथी को मार डाला । शेष रात्रि में लौटते समय उपाश्रय के बाहर ही दोनों दांत रखकर अन्दर आकर अपने संथारे पर सो गए। प्रातः उठकर गुरु के पास जाकर कहा कि आज मेंने ऐसा स्वप्न देखा है। कुछ देर में सभी साधु विहार के लिए निकले । बाहर निकलते ही जब हाथी के दोनों दांत देखे तब शंका पड़ी। गुरु ने सभी साधुओं को पूछा, किसी ने भी कोई जवाब नहीं दिया । गाँव के बाहर जाते ही उस साधु के उपकरण दिखाई दिये। इस प्रमाण से गुरु उस साधु को थीणद्धि निद्रा नामक दर्शनावरणीय कर्म के उदय वाला जानकर उससे साधुवेश छिनकर निकाल दिया।
कर्म की गति न्यारी