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रहने पर अर्थात् आवरित आच्छादित रहने पर वे मति श्रुत आदि ज्ञान तथा चक्षुअचक्षु आदि दर्शन स्वतन्त्र रूप से रहते हैं, परन्तु केवलज्ञान- दर्शन की उपस्थिति में नहीं रहते हैं । अतः केवलज्ञान पूर्ण - सम्पूर्ण है । इसमें अन्य ज्ञान -दर्शन की आवश्यकता नहीं पड़ती । केवलज्ञान-दर्शन के बाहर अन्य किसी भी ज्ञान दर्शन की रत्तीभर मात्रा का अस्तित्व भी नहीं है ।
श्री जिनवरने प्रकट थयुरे, दोष अढार अभाव थी रे, भविया वन्दो केवलज्ञान,
क्षायिक भावे ज्ञान । गुण उपन्यां ते प्रमाण रे ॥ पंचमी दिन गुण खाण ||१||
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अनामी ना नामनो रे, किश्यो विशेष कहेवाय । ए तो मध्यमा वैखरी रे, वचन उल्लेख ठराय ॥२॥
ध्यान टाणे प्रभु तु होय रे, अलख अगोचर रूप । परा पश्यंती पामी ने रे, कांइ प्रमाणे मुनि भूप रे || ३ ||
छती पर्याय जे ज्ञाननी रे, ते तो नवि बदलाय । ज्ञयनी नवनवी वर्तना रे, समय मां सर्व जणाय ॥४॥
बीजा ज्ञानतणी प्रभा रे, रवि प्रभा थी अधिक नहीं रे,
एहमां सर्व समाय । नक्षत्र गण समुदाय रे ॥ ५॥
गुण अनंत ज्ञानना रे, जाणे धन्य नर तेह | विजयलक्ष्मी सूरि ते लहे रे, ज्ञान
महोदय गेह || ६ ||
केवलज्ञानी -दर्शनी अर्थात् सर्वज्ञ - सर्वदर्शी सर्व द्रव्यक्षेत्र - काल एवं भाव- समकाल, एक साथ ग्रहण करते हैं, जानते-देखते हैं । इसमें काल का भी भेद नहीं रहता । भूत वर्तमान-भावी के समस्त भावों को एकसाथ जानते देखते हैं । अतः यह त्रिकालज्ञान है । इसके स्वामी त्रिकालज्ञानी - दर्शनी कहलाते हैं । यह केवलज्ञान - दर्शन स्वरूप से सभी केवलियों में समान रूप से रहता है । अतः केवलज्ञान का स्वामी - केवली, और केवलदर्शन का स्वामी केवलदर्शी अर्थात् सर्वज्ञ - सर्वदर्शी सभी में केवलज्ञान - केवलदर्शन समान है, एक सरीखा है । इसके मालिक चाहे साधु हो, या संसारी, देहधारी हो या सिद्धात्मा, तीर्थकर हो या गणधर, स्त्री या पुरुष, सभी का केवलज्ञान - दर्शन एक सरीखा - समान रूप होता है, क्योंकि यह सर्वावरण के सम्पूर्ण क्षय से उत्पन्न होता है ।
कर्म की गति न्यारी