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________________ नमुत्थूणं सूत्र में "अप्प डोहयवरनाणदंसणधराणं" पाठ है । अप्पडीहय: अप्रतिहत, वर = श्रेष्ठ, नाण-दंसण = केवलज्ञान, केवलदर्शन, धराणं = धारण करने वाले, अर्थात् अप्रतिहत ( कभी भी नष्ट न होने वाले) केवलज्ञान और केवलदर्शन को धारण करने वाले अरिहंत भगवान होते हैं । वे पूर्ण नानी - सम्पूर्णदर्शनी सर्वज्ञसर्वदर्शी कहलाते हैं । यहां "अप्रतिहत" विशेषण नाश न होने के अनन्त अर्थ में है । = केवलज्ञान और केवलदर्शन में कोई ख़ास लम्बा अन्तर नहीं । दर्शन भी जहां ज्ञानाकार ही है वहाँ अन्तर सिर्फ इतना ही है कि, दर्शन सामान्याकार, निराकारनिर्विकल्पक अव्यक्त होता है, दर्शन से इस प्रकार सामान्य निराकार अव्यक्त बोध होता है, और ज्ञान विशेष रूप साकार - सविकल्प, और व्यक्त स्पष्ट बोधकारक है । अत: ज्ञान विशेषात्मक सामान्यरूप होता है । छद्मस्थ जीवों को प्रथम सामान्योपयोगी दर्शन होता है, और बाद में विशेषोपयोगी ज्ञान होता है, जबकि सर्वज्ञ केवली को प्रथम समय में केवलज्ञान होता है और दूसरे समय केवलदर्शन होता है । ज्ञानदर्शन से जानने और देखने की क्रिया होती है । केवलदर्शन का लक्षण इस प्रकार बताया है - "केवलदर्शनावरणक्षयादि निमित्तवशाद् वैकालिक - वस्तुविषयकसामान्याव बोधरूपत्वं केवलदर्शनस्य लक्षणम् ॥ उद्भूत और तीनों काल के । अर्थात् केवलदर्शनावरणीय कर्म क्षयादि से पदार्थविषयक सामान्यबोध को केवलदर्शन कहते हैं इसके अधिकारी केवली हैं । चारों घनघाती कर्मों के क्षय मे यह अवस्था तेरहवें गुणस्थान पर प्राप्त होती है । प्रथम समय में साकार उपयोग रूप केवलज्ञान प्राप्त करते हैं और दूसरे समय में निराकारदर्शन उपयोग केवलदर्शन प्राप्त होता है । बाद में समयान्तर अपयोग होता रहता है । यहाँ मतभेद अवश्य है । सिद्धसेन दिवाकरसूरि समयान्तर न मानते हुए युगपत् मानते हैं । उभय स्वरूपी विषय की समीप दशा में भी केवलज्ञान तमाम विशेषों को ही ग्रहण करता है जबकि केवलदर्शन सर्वसामान्य को ग्रहण करता हैं । इस तरह केवलज्ञान और केवलदर्शन का स्वभाव है । इस प्रकार युगपद्वादी और क्रमिकवादियों में परस्पर में चर्चा है । दर्शन चतुष्क के स्वामी दर्शनियों की चार प्रकार की संख्या में अवधिदर्शन वालों की संख्या सबसे कम है । चक्षुदर्शन वालों की संख्या अवधिदर्शन वालों की संख्या से असंख्यगुनी अधिक है और इस संख्या से अनन्तगुनी संख्या केवलदर्शन वालों की है । और इनसे अनंत से भी अधिक अचक्षुदर्शन वालों की संख्या है । कर्म की गति न्यारी ४१
SR No.002480
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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