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केवलज्ञान-केवलदशन
यह आत्मा का मूलभूत अनन्तज्ञान-अनन्तदर्शन गुण है। इन्द्रियां-मन तथा शरीरादि पदार्थ जड़ हैं, अजीव है । अतः इनका सीधा स्वभाव या गुण नहीं है कि - देखना या जानना। अतः किसी इन्द्रिय एवं मन की सहायता से समस्त लोकअलोक क्षेत्र देखना-जानना तथा उसमें के रूपी-अरूपी द्रव्यों को अनन्त गुण-पर्यायों के साथ देखना-जानना यह आत्मा का मूलभूत स्वभाव है। यही अनन्तज्ञान-अनन्तदर्शन या केवलज्ञान-केवलदर्शन गुण कहलाता है। इसका स्वरूप वर्णन करते हुए इस प्रकार कहा है कि-केवलं शुद्धम्, तदावरणापगमात् सकलं वा केवलम्, तत्प्रथमतयैव निःशेष तदावरणविगमतः सपूर्णतोत्पत्तेः असाधारणं वा केवलम्, अनन्यसदृशत्वात् । अनन्तं वा केवलम् ज्ञयाऽनन्तत्वाद्-अनन्तकालावस्थापित्वाद्वा, मिाद्यातं वा केवलम्, लाकेऽलाके वा प्रसत्तौ व्याघ.ताभावात्, तथा केवलम्एकम्, मत्यादि चतुष्क रहित्वात् ।
केवलज्ञान सम्पूर्ण शुद्ध है क्योंकि उसका आवरण रूप जो केवलज्ञानावरणीय कर्म था, उसके सर्वथा क्षय हो जाने से यह पूर्ण शुद्ध है। केवलज्ञान प्रथम से ही सकल-सर्व पदार्थग्राही है क्योंकि पहले से ही सम्पूर्ण केवलज्ञानावरणीय क्षय होने से उत्पन्न हुआ है। अतः यह पहले से ही सम्पूर्ण होता है । यह केवल ज्ञान असाधारण ज्ञान है क्योंकि इसके जैसा दूसरा कोई सदृश-समान नहीं है, अतः यह केवलज्ञानकेवलदर्शन अनन्त है, अन्त रहित है । इसका कहीं अन्त नहीं है, क्योंकि जानने देखने योग्य जगत के पदार्थ-द्रव्य अनन्त होने से यह भी अनन्त हैं तथा उत्पन्न होने के बाद अनन्त काल तक स्थिर रहने वाला होने के कारण-जिसका काल की दृष्टि से भी कभी अन्त होने वाला न होने से यह काल की दृष्टि से भी अनन्त कहा जाता है। इसलिये इसे अप्रत्तिपाति कहते हैं । केवलज्ञान-दर्शन-निर्व्याघात है, व्याघात रहित है । लोक या अलोक में प्रतृत होते हुए भी इसका व्याघात नहीं होता है, कोई व्याघात नहीं कर सकता है । इसका बाधक कोई नहीं है। केवलज्ञान-दर्शन के मार्ग में कोई अवरोधक-बाधक नहीं बन सकता है। अतः यह निर्व्याघात है तथा केवलज्ञान-एकज्ञान है । केवलदर्शन-एक दर्शन है। इसकी उपस्थिति में अन्य ज्ञान-दर्शन उपस्थित नहीं रहते हैं । जैसे सूर्य के उदय होने से चन्द्र, तारा, दीपकादि का प्रकाश सूर्य के प्रकाश में समा जाता है, फिर उनका स्वतन्त्र प्रकाश नहीं रहता है, वैसे ही केवलज्ञानदर्शन हो जाने के बाद मति-श्रुतादि ज्ञान तथा चक्षु-अचक्षु आदि दर्शन स्वतन्त्र-अलग नहीं रहते हैं, सभी इसमें मिल जाते हैं । परन्तु जैसे सूर्य के न रहने पर अर्थात् अस्त रहने पर चन्द्र, तारा, दीपक आदि का प्रकाश रहता है वैसे ही केवलज्ञान-दर्शन न
कर्म की गति न्यारी